गीता का उपदेश है कि तुम्हारा कर्म में अधिकार है उस कर्म के फल में नहीं। इसका भाव यही है कि फल की चिंता किये बिना अपना कर्म करते रहो। उसका फल जो ईश्वर को देना होगा देगा, किन्तु अब यह क्रम अपने विपरीत क्रम में अग्रसरित हो गया है। इसलिए इंसान वर्तमान में जीना भूलकर भविष्य के सम्भावित परिणामों के प्रति बैचेन होता जा रहा है। अनवरत अथक श्रम ने मनुष्य को वर्तमान में जीना ही भुला दिया है। वह सुख प्राप्ति की इस यात्रा में ऐसे भटक रहा है कि उसे अपने आसपास की वह खुशी नजर नहीं आ पा रही। प्रतिस्पर्धी युग में ऐसी स्थितियां स्वाभाविक हैं, किन्तु इनके हानिकारक होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। कठिन परिश्रम सफलता की कुंजी अवश्य होता है, किन्तु अति की लालसा के परिणाम भयानक होते हैं और यहां अति ही असंतुष्टि की जन्मदात्री है। इसलिए मनुष्य कितना भी अर्जित क्यों न कर लें, किन्तु वह और अधिक की लालसा में अपना सुख-चैन खो बैठता है। उसे खुशियां तो प्राप्त होती हैं, परन्तु वह न तो उन्हें देख पाता है और न ही उनका आनन्द उठा पाता है। सदैव स्मरण रहे कि जिसे खुश रहना आ गया, उसके कर्म के प्रत्येक परिणाम सार्थक होंगे।