हमें सर्वप्रथम यह निश्चित कर लेना चाहिए कि कौन इच्छाएं जिनकी पूर्ति होने पर हमारा विकास सम्भव है और कौन ऐसी इच्छाएं हमारे भीतर पैदा हो गई, जो विकास में बाधक हो सकती है, परन्तु यह नीर क्षीर विवेक तभी आ पायेगा, जब हमारी बुद्धि अनुशासित होगी, बुद्धि का अनुशासन हमारा पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। एक सामान्य व्यक्ति को अकस्मात कोई सफलता अथवा इच्छा पूर्ति हो जाये तो उसमें अहम तत्व के पैदा होने की सम्भावना हो जाती है। वह सोचता है कि मैंने वह प्राप्त कर लिया है, जो दूसरे प्राप्त नहीं कर पाये। मैं दूसरों से अधिक बुद्धिमान हूं, दूसरों से श्रेष्ठ हूं, परन्तु धीरे-धीरे यह भाव ही उसे अवनति के गर्त में धकेल देता है। इसके समानान्तर जो असफल हो जाता है, उसमें असफलता ईर्ष्या का भाव पैदा कर सती है। दूसरे की उपलब्धि उसे ईर्ष्यालु बना देती है। वह दूसरे सफल व्यक्ति से जलता है, कुढता है, अपनी असमर्थता के लिए अपनी भत्र्सना करता है, परन्तु हमें समझना चाहिए कि हमने वही तो प्राप्त करना है, जो बोया है। जो मिलना है, उससे अधिक मिलेगा नहीं। इस यथार्थ को जान लो शान्ति मिलेगी।