लघु कथा- बुज़ुर्ग क्यूँ नहीं रोते
माहौल ग़मगीन था। परिवार में मौत होने पर सबकी आँखों में आँसू थे पर एक कोने में बैठे कुछ बुज़ुर्ग ख़ामोश थे। रोते-बिलखते लोगों के बीच यही वर्ग था जो न रोकर, संतुलन बिठाने की कोशिश में लगा दिखा। मैंने जिज्ञासा-वश एक बुज़ुर्ग महिला से यूँ ही पूछ लिया- मरने वाला आपका कौन था। जवाब मिला- मेरा छोटा भाई था। उसके भाई से जुड़े परिवार के सभी लोग जहाँ बिलख रहे थे, वहीं वह महिला ख़ामोश थी। उम्र की सफ़ेदी बालों के साथ-साथ चेहरे पर भी चमक रही थी। किसी संत जैसी विरक्ति के साथ वह ग़मगीन महिला सबको दिलासा दे रही थी। मन में विचार कौंधा, क्या इसे अपने भाई के मरने का दुःख नहीं है? फिर बाहर से आए एक सज्जन ने यूँ ही पूछ लिया- कितनी उम्र थी। जवाब दिया गया- पचहत्तर के हुए थे पिछले महीने। ये सुनकर उन सज्जन के चेहरे पर आश्वस्ति जैसे भाव आ गए। मानो जाने वाला चला गया तो ठीक ही हुआ। चंद रस्मों के बाद जाने वाला अपने अंतिम पड़ाव की ओर पहुँचा दिया गया। लोग चले गए पर कोने में वे बुज़ुर्ग लोग बैठे रहे। अब उनकी भूमिका बदल गई थी। ख़ाना न खाने की ज़िद पर अड़े परिजन को वे समझा रहे थे। सुबुक-सुबुक रोती पत्नी, बेटी, पोता-पोती और परिवार से जुड़े तमाम लोगों पर उनके हाथ, भाव-भरे अंदाज़ में कभी उनके कंधों पर पड़ते, कभी सिर पर। अब तक अपने भावों को दबाए न जाने कितनों की रुलाई अब फूट पड़ी। बुज़ुर्ग उनको सांत्वना देते और हौसला बढ़ाते। कुछ महीनों बाद मैं फिर उस घर में गया। पता चला, बुआ चली गईं थीं हमेशा के लिए, शायद भाई का ग़म झेल नहीं पाईं थीं। मैं सोच में डूब गया, उस दिन छोटे भाई की मौत पर न रोने वाली बुआ, सबको दिलासा देने वाली बुआ, क्या अंदर से इतना टूट गई थीं। हम शायद इन बुज़ुर्गों को समझ नहीं पाते। ये किसी शॉक अब्ज़ॉर्बर की तरह सब- कुछ अपने अंदर समेट लेते हैं, और अंदर ही अंदर घुटते चले जाते हैं। ये सबको समझते हैं पर पता नहीं क्य़ूँ हम ही इन्हें समझने में नाकाम हो जाते हैं।
माहौल ग़मगीन था। परिवार में मौत होने पर सबकी आँखों में आँसू थे पर एक कोने में बैठे कुछ बुज़ुर्ग ख़ामोश थे। रोते-बिलखते लोगों के बीच यही वर्ग था जो न रोकर, संतुलन बिठाने की कोशिश में लगा दिखा। मैंने जिज्ञासा-वश एक बुज़ुर्ग महिला से यूँ ही पूछ लिया- मरने वाला आपका कौन था। जवाब मिला- मेरा छोटा भाई था।
फिर बाहर से आए एक सज्जन ने यूँ ही पूछ लिया- कितनी उम्र थी। जवाब दिया गया- पचहत्तर के हुए थे पिछले महीने। ये सुनकर उन सज्जन के चेहरे पर आश्वस्ति जैसे भाव आ गए। मानो जाने वाला चला गया तो ठीक ही हुआ। चंद रस्मों के बाद जाने वाला अपने अंतिम पड़ाव की ओर पहुँचा दिया गया। लोग चले गए पर कोने में वे बुज़ुर्ग लोग बैठे रहे।
अब उनकी भूमिका बदल गई थी। ख़ाना न खाने की ज़िद पर अड़े परिजन को वे समझा रहे थे। सुबुक-सुबुक रोती पत्नी, बेटी, पोता-पोती और परिवार से जुड़े तमाम लोगों पर उनके हाथ, भाव-भरे अंदाज़ में कभी उनके कंधों पर पड़ते, कभी सिर पर। अब तक अपने भावों को दबाए न जाने कितनों की रुलाई अब फूट पड़ी। बुज़ुर्ग उनको सांत्वना देते और हौसला बढ़ाते।
कुछ महीनों बाद मैं फिर उस घर में गया। पता चला, बुआ चली गईं थीं हमेशा के लिए, शायद भाई का ग़म झेल नहीं पाईं थीं। मैं सोच में डूब गया, उस दिन छोटे भाई की मौत पर न रोने वाली बुआ, सबको दिलासा देने वाली बुआ, क्या अंदर से इतना टूट गई थीं। हम शायद इन बुज़ुर्गों को समझ नहीं पाते। ये किसी शॉक अब्ज़ॉर्बर की तरह सब- कुछ अपने अंदर समेट लेते हैं, और अंदर ही अंदर घुटते चले जाते हैं। ये सबको समझते हैं पर पता नहीं क्य़ूँ हम ही इन्हें समझने में नाकाम हो जाते हैं।
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