Tuesday, April 22, 2025

कात्यायनी-6

न्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना।।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानवघातिनी।।
मां दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। इनका कात्यायनी नाम पडने की कथा इस प्रकार है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे।

इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बडी कठिन तपस्या की थी। इनकी इच्छा थी कि मां भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। मां भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी।

कुछ काल पश्चात जब दावन महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ गया, तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिये एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलायीं। ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के यहां पुत्राी रूप से उत्पन्न भी हुई थी। अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक- तीन दिन, इन्होंने कात्यायन ट्टषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।

मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिये व्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये व्रज मण्डल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य और दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं हैं।

माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।

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दुर्गा पूजा के छठवें दिन इनके स्वरूप की उपासना की जाती है। उस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्रका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है।

परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। मां कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बडी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।

उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मान्तर के पापों को विनष्ट करने के लिये मां की उपासना से अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है। इनका उपासक निरंतर इनके सानिध्य में रहकर परमपद का अधिकारी बन जाता है। अत: हमें सर्वतोभावेन मां के शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिये तत्पर होना चाहिए।

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