मूर्ख मनुष्य जिन भोगों में सुख समझते हैं वे सबके सब अति दारूण दुख का मूल है। आयु अत्यंत चंचल है, मृत्यु अत्यंत कठोर तथा अनिवार्य, युवावस्था अचिर तथा अस्थायी है और बाल्यकाल अज्ञान से भरा पड़ा है।
जितने बन्धु हैं, सम्बन्धी हैं वे इस संसार के बंधन हैं। जितने भोग हैं वे महारोग हैं और तृष्णा मृगतृष्णा के समान है।
वासनाओं से विरक्त होने से ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। आत्मतत्व विषयक स्थूल ज्ञान शीघ्र प्राप्त होना सम्भव है, परन्तु वैराग्य बड़ी कठिनता और अभ्यास से होता है।
राग और द्वेष के कारण जिनकी ज्ञान शक्ति नष्ट नहीं हुई, वही ज्ञानी, तत्वज्ञ तथा आत्मनुभुवी है। जो ज्ञानी जन, यश, धन आदि के उद्देश्यों को त्यागकर भोगों की तृष्णा से उपराम हो गये, विरक्त हो गये हैं, इस संसार में उन्हीं को जीवन मुक्त कहते हैं। जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं होता, तब तक सांसारिक पदार्थों एवं विषयों में वैराग्य होना असम्भव है।