जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, जो ऊंचा चढ़ा उसका नीचे गिरना अवश्यम्भावी है।
संयोग की समाप्ति वियोग से होती है। संग्रह हो जाने के पश्चात उसका क्षय होना भी निश्चित है। हर्ष के पश्चात शोक होगा और शोक के पश्चात हर्ष की प्राप्ति होगी। इस यथार्थ को जानकर विद्वान पुरूष न हर्ष में इतराते हैं और न शोक में दुखी होते हैं।
सुख और दुख समुद्र की लहरों और धूप-छाव की तरह होती है। इसी प्रकार कभी सुख आता है और कभी दुख की प्राप्ति होगी रहती है। प्रबुद्ध जन सुख के दिनों में अधिक प्रसन्न नहीं होते और दुख में अधिक दुखी नहीं होते। वे जानते हैं कि दुख यदि न आये तो सुख के मूल्य का ज्ञान कैसे होगा।
इसलिए अपने अहम् को समाप्त करके अपने पराये का भेद मिटाकर सुख और दुख में समान भाव से रहते हुए वासनाओं को समाप्त करें, सारे कलुष और सारी इच्छाओं से परे होकर परमात्मा के सानिध्य में जाने योग्य पात्रता पैदा करे तभी आत्मा को अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो पायेगी।