आधुनिक युग की आपाधापी में जीवन की अन्तिम सच्चाई का अहसास व्यक्ति को तभी होता है, जब वह मृत्यु शैय्या पर होता है। लोग अपने कैरियर, परिवार और जिम्मेदारियों के तले इतना दबे हुए होते हैं कि उनसे बाहर आने की फुरसत ही उन्हें उस समय होती है जब वे या तो अस्वस्थ हो चुके होते हैं अथवा जीवन के अन्तिम पलों को गिन रहे होते हैं। कब बसंत ऋतु आई, कब ग्रीष्म के थपेड़ों ने धरती को बरबराया, कब सावन ने धरा पर कदम रखा और शीतल फुव्वारों से तन-मन को आनन्दित कर दिया। इन सबके अहसास से अधिकांश व्यक्ति अछूते ही रह जाते हैं। धरती पर अनगिनत कलाएं व्यक्ति के हृदय को प्रफुल्लित करने के लिए बिखरी पड़ी है, पर लोग आगे बढऩे की धुन में इस कदर उलझे रहते हैं कि नदी की कल-कल करती धारा में भी संगीत है, मदमस्त हवाओं में भी प्रीत है और मन को छू लेने वाली हर वस्तु एक मीत है, ये लोग इन संवेदनाओं का अहसास ही नहीं कर पाते। ऐसे लोगों को जीवन काल की संध्या पर पश्चाताप होता है कि जीवन को न तो अपने हिसाब से जी पाये अर्थात न तो संसार में परमात्मा की दी हुई नेमतों (वरदानों) का ही सच्चा आनन्द ले पायें और न ही परमात्मा को पाने का सही अर्थों में प्रयास ही किया। जीवन को यूं ही गंवा दिया।