ज्ञानोपदेश न ज्ञानी के लिए है न अज्ञानी के लिए अपितु जिज्ञासु के लिए होते हैं, क्योंकि आत्मनिष्ठ ज्ञानी को तो स्वयं ही ज्ञान है इसलिए उसे ज्ञान चर्चा सुनने की कोई आवश्यकता नहीं और जो विषयों में, व्यसनों में फंसा हुआ वह ज्ञान की बातों को सुनने का अधिकारी नहीं, क्योंकि उसकी रूचि ज्ञान की बातों में हो ही नहीं सकती। इसलिए ज्ञानोपदेश सुनने का अधिकारी तो उनके मध्य का ज्ञान जिज्ञासु ही हो सकता है।
ज्ञान श्रवण की आवश्यकता तो उस वानप्रस्थ जिज्ञासु की है कि जिसने ब्रह्मचर्य से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके विषय भोगों को यथा योग्य भोगकर विषय भोगों की तुच्छता, निस्सारता और नश्वरता को अनुभव कर लिया है और सांसारिक भोगों से उपराम हो चुका है, जो शरीर की नश्वरता, आत्मा की अमरता तथा ईश्वर की महानता की चर्चा चिंतन में निमग्र हैं और जो किसी अधिकारी जिज्ञासु से मिलने पर शरीर की नश्वरता, आत्मा की अमरता तथा ईश्वर की महानता की चर्चा चिंतन करता है। ऐसा भाग्यशाली गृहस्थ घर में रहते हुए भी वन में है।
इसके विपरीत जो वन में रहकर भी विषय भोगों की चर्चा चिंतन करते हैं, विषय भोगों से आसक्ति रखते हैं वे वन में नहीं अपितु बस्ती में हैं।