गृहस्थी ममत्व में जीता है, जबकि सन्यासी ममत्व के पार अममत्व के जगत में जीता है। ममत्व के जगत में जीने वाला व्यक्ति किसी को अपना बनाता है और किसी को पराया बनाता है, किसी को मित्र बनाता है, किसी को शत्रु बनाता है। किसी को प्रिय बनाता है, किसी की उपेक्षा करता है।
अममत्व के जगत में जीने वाला सन्यासी समष्टि को (सम्पूर्ण मानवता को) अखण्ड रूप में ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि अखण्ड होती है वह प्राणी मात्र को एक आंख से देखता है। समस्त जीवों पर उसकी मैत्री बरसती है। समस्त जीवों पर समान भाव से उसकी करूणा बहती है।
ऐसा नहीं कि वह सम्मान देने वाले पर प्रसन्न और असम्मान देने वाले पर अप्रसन्न होता हो, ऐसा भी नहीं कि सुख देने वाले को वह गले लगाता है और कष्ट देने वाले को दुत्काराता है। उसे कोई सम्मान दे अथवा कोई अपमान करे, उस पर कोई फूल बरसाये अथवा कोई पत्थर बरसाये सभी पर उसकी करूणा धार अखण्ड रूप में बहती है।
वह सबसे प्रेम करता है, सभी पर उसकी करूणा बरसती है। यदि गृहस्थी में भी वे गुण आ जाये तो वह भी घर में रहता हुआ सन्यासी हो जाये। मर्यादा पुरुषोत्तम राम इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।