बाईस बरस की उम्र में संन्यास लेकर दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले आचार्यश्री विद्यासागर महाराज की एक झलक पाने लाखों लोग मीलों पैदल दौड़ते रहे हैं। आचार्य श्रेष्ठ के प्रवचनों में धार्मिक व्याख्यान कम और ऐसे सूत्र ज्यादा होते, जो किसी भी व्यक्ति के जीवन को सफल बना सकते हैं। कर्नाटक में जन्मे वह अकेले ऐसे संत हैं, जिनके जीवंत रहते उन पर अब तक 60 से अधिक पीएचडी हो चुकी हैं। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, कन्नड़, मराठी, प्राकृत, अपभ्रंश सरीखी भाषाओं के जानकार विद्यासागरजी का बचपन भी आम बच्चों की तरह बीता। गिल्ली-डंडा, शतरंज आदि खेलना, चित्रकारी स्वीमिंग आदि का इन्हें भी बहुत शौक रहा, लेकिन जैसे-जैसे बड़े हुए आचार्य श्रेष्ठ का आध्यात्म की ओर रुझान बढ़ता गया। आचार्य श्रेष्ठ का बाल्यकाल का नाम विद्याधर था। कर्नाटक के बेलगांव के ग्राम सदलगा में शरद पूर्णिमा (10 अक्टूबर, 1946) श्रेष्ठी श्री मल्लप्पा अष्टगे और श्रीमती अष्टगे के घर जन्मे आचार्य ने कन्नड़ के माध्यम से हाई स्कूल तक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद वह वैराग्य की दिशा में आगे बढ़े और 30 जून, 1968 को मुनि दीक्षा ली। आचार्य का पद उन्हें 22 नवंबर, 1972 को मिला। आचार्य श्रेष्ठ की ज्ञान गंगा के सम्मुख करोड़ों-करोड़ लोग नतमस्तक रहे हैं। इनमें तमाम हस्तियां भी शामिल हैं। 1999 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, 2018 में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर, फ्रांसीसी राजनयिक अलेक्जेंड्रे जिग्लर, तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति सुरेश जैन उनका आशीर्वाद प्राप्त कर चुके हैं।
शरद पूर्णिमा पर उन पर तमाम आयोजन होते हैं। आचार्यश्री ने 28 जुलाई, 2016 को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आमंत्रण पर मध्य प्रदेश विधानसभा में प्रवचन किया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आचार्यश्री को राज्य अतिथि का दर्जा दे रखा था। 20वीं और 21वीं शताब्दी के साहित्य जगत में एक नए उदीयमान नक्षत्र के रूप में जाने-पहचाने जाने वाले शब्दों के शिल्पकार, अपराजेय साधक, तपस्या की कसौटी, आदर्श योगी, ध्यान ध्याता-ध्येय के पर्याय, कुशल काव्य शिल्पी, प्रवचन प्रभाकर, अनुपम मेधावी, नवनवोन्मेषी प्रतिभा के धनी, सिद्धांतागम के पारगामी, वाग्मी, ज्ञानसागर के विद्याहंस, प्रभु महावीर के प्रतिबिंब, महाकवि, दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागरजी की आध्यात्मिक छवि के कालजयी दर्शन आनंद से भर देते थे। सम्प्रदाय मुक्त भक्त हो या दर्शक, पाठक हो या विचारक, अबाल-वृद्ध, नर-नारी उनके बहुमुखी चुम्बकीय व्यक्तित्व-कृतित्व को आदर्श मानकर उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारकर अपने आपको धन्य मानते रहे हैं। आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रेरणादायक युगप्रवर्तक महाकाव्य ‘मूकमाटी का सर्जन कर साहित्य जगत में चमत्कार कर दिया। इसे साहित्यकार ‘फ्यूचर पोयट्री एवं श्रेष्ठ दिग्दर्शक के रूप में मानते हैं। विद्वानों का मानना है कि भवानी प्रसाद मिश्र को सपाट बयानी, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का शब्द विन्यास, महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की छान्दसिक छटा, छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ सुमित्रानंदन पन्त का प्रकृति व्यवहार, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता महादेवी वर्मा की मसृष्ण गीतात्मकता, बाबा नागार्जुन का लोक स्पन्दन, केदारनाथ अग्रवाल की बतकही वृत्ति, मुक्तिबोध की फैंटेसी संरचना और धूमिल की तुक संगति आधुनिक काव्य में एक साथ देखनी हो तो वह मूकमाटी में देखी जा सकती है।
आचार्य श्रेष्ठ का मातृभाषा प्रेम, देशभक्ति, हिंदी के प्रति अगाध आस्था जगजाहिर रहा है। वह हमेशा गर्व से कहते थे- हिंदी में लिखो, हिंदी बोलो, इंडिया नहीं, भारत बोलो, शिक्षा के साथ संस्कार पाओ, हथकरघा के वस्त्र अपनाओ, स्वदेशी पहनो, स्वावलंबन लाओ, भारतीय संस्कृति बचाओ। वह युवाओं को अपने आशीर्वचन में अकसर कहते थे, उन्हें अंग्रेजी मिटानी नहीं है बल्कि अंग्रेजी को हटाना है, क्योंकि इसके पीछे बहुत से कारण हैं। विश्व के कई देशों में अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाती है। वे देश विकास की बुलंदियों पर हैं। फिर हमारा देश हिंदी को अपनाने में पीछे क्यों है? सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में करोड़ों वाद लंबित है। इसके मूल में भी कहीं न कहीं भाषा ही है। अपनी भाषा राष्ट्रभाषा से ही देश का विकास, जन-जन से जुड़ाव और ज्ञान का प्रकाश फैलाना संभव है। व्यापार की भाषा, बोलचाल की भाषा, प्रशासनिक भाषा, राष्ट्र भाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए। आचार्यश्री मानते थे कुछ लोगों को लगता है अंग्रेजी का विरोध होने से हम बाकि देशों की भाषा से कट जाएंगे। अंग्रेजी के बिना तो कुछ भी नहीं है, यह केवल भ्रम है। आचार्य श्रेष्ठ युवाओं को नामचीन पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक की पुस्तक-अंग्रेजी हटाओ क्यों और कैसे? को पढऩे की सलाह दी थी, चूंकि उन्होंने भी इस पुस्तक का अध्ययन किया था। यह ही नहीं, डॉ. वैदिक रामटेक हो या नागपुर, वह समय-समय पर जैन संत शिरोमणि के दर्शनार्थ आते-जाते रहते थे।
आचार्य श्रेष्ठ मानते रहे हैं, वर्तमान शिक्षा नीति अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। शिक्षा धन से जुड़ गई है। आज की शिक्षा के साथ-साथ अनुभव नहीं है। डिग्री तो मिल जाती है, लेकिन सारी पढ़ाई-लिखाई करने के बाद भी नौकरी नहीं मिलती है। यह सब हमारे देश में पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव है। आज इतिहास को स्कूलों में लीपा-पोती करके पढ़ाया जाता है, हमारा पुराना इतिहास उठा कर देखो। आचार्यश्री ने कहा था, मैं भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध नहीं करता हूं लेकिन अंग्रेजी भाषा को विश्व की अन्य भाषाओं के साथ ऐच्छिक रखना चाहिए। शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं ही हों। अंग्रेजों ने भारत की परंपरा के साथ चालाकी करके ‘भारत को ‘इंडिया बना दिया है। भारत के साथ हमारी संस्कृति और इतिहास जुड़ा है, लेकिन इंडिया ने भारत की भारतीयता, जीवन पद्धति, नैतिकता, रहन-सहन और खान-पीन सब कुछ छीन लिया है। आचार्य शिरोमणि ने यह सलाह भी दी थी, शिक्षा में शोधार्थी की रुचि, किसमें है, इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। आज मार्गदर्शक के अनुसार शोधार्थी शोधकर्ता हैं। इससे मौलिकता नहीं उभर पा रही है। शिक्षा रोजगार पैदा करने वाली हो, बेरोजगारी बढ़ाने वाली नहीं हो, शिक्षा कोरी किताब नहीं हो।
नई शिक्षा नीति-एनईपी-2020 में मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा की खुशबू, व्यावसायिक शिक्षा, अंग्रेजी भाषा को वैकल्पिक भाषा, शिक्षा रोजगारपरक होने की तमाम खूबियों में आचार्यश्री की दूरदृष्टि सामाहित है। इसके पीछे बड़ा दिलचस्प और प्रेरणादायी किस्सा है। पदम विभूषण, इसरो के पूर्व अध्यक्ष एवं एनईपी कमेटी के चेयरमैन डॉ. कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन नई शिक्षा नीति के मसौदे के सिलसिले में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिले तो उन्होंने चेयरमैन डॉ. कस्तूरीरंगन को सलाह दी थी कि उन्हें एक बार आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज से जरूर मिलना चाहिए और उनकी बेशकीमती राय जाननी चाहिए। राष्ट्रपति की सलाह पर चेयरमैन डॉ. कस्तूरीरंगन अपनी कमेटी के और सदस्यों-प्रो.टीवी कट्टीमनी, डॉ. विनयचन्द्र बीके, डॉ. पीके जैन इत्यादि के संग 21 दिसम्बर, 2017 को दर्शनार्थ और चर्चार्थ छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में विराजित आचार्यश्री से मिले। करीब 53 मिनट के इस बहुमूल्य संवाद और आशीर्वचन की झलक नई शिक्षा नीति में साफ-साफ दिखाई देती है। नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट दस्तावेज के पेज नं.-455 पर इसका स्पष्ट उल्लेख भी है। आचार्य के लिए धरती ही बिछौना था। आकाश ही ओढ़ौना था। दिशाएं ही वस्त्र बन गए थे। आध्यात्म जगत के इस राजहंस की स्मृतियों को सादर प्रणाम।
-प्रो. श्याम सुंदर भाटिया