श्रीमद्भगवत गीता का प्रमुख वाक्य है कि परिवर्तन संसार का नियम है और शायद कभी-कभी कुछ परिवर्तन बेहतर भी सिद्ध होते है। कुछ तथ्य या कार्य यथावत ही श्रेयस्कर होते है। आज हम निरंतर आगे की ओर बढ़ रहे है। पीछे मुड़कर देखना, चीजों पर गौर करना शायद कठिन हो गया है। सही भी है की समय, काल और परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेना चाहिए। जीवन की पारी तो उतार-चढ़ाव से भरी पड़ी है, परंतु यदि कुछ अनुभव पुरानी पीढ़ी से भी ग्रहण किए जाए तो नवीन पीढ़ी को सफलता के आयाम रचने और सफल जीवन जीने में मदद कर सकेंगे।
हमारी पुरानी पीढ़ी दिखावे की दुनिया नहीं जीती थी। उनके जीवन से बनावट कौसों दूर थी। वे प्रकृति का सानिध्य पाते थे। भोर में चिड़ियों की चहचहाअट सुनते थे। व्यायाम के लिए स्वयं बाल्टी भरकर पानी लाना, अनाज पीसना, मसाले कुटना, बाजार में जाकर देसी टमाटर, बैंगन खोजकर लाना ऐसी अनेकों क्रियाएँ उनके व्यायाम में शामिल थी। उनके जीवन में साथ बैठकर वार्तालाप करना, भजन करना भी शामिल था। आजकल ट्रेन की यात्रा हो या घर हम प्रत्येक ज्ञान मोबाइल से ही लेना चाहते है। आज जब हम ट्रेन और बस का सफर करते है तो मोबाइल के साथ ही अपने सफर का अंत करते है, पर वे लोग नए लोगों से मिलते थे, डायरी में उनका नंबर लिखते थे और उनसे संपर्क कर कुछ नवीन ज्ञान प्राप्त करते थे। यदि कभी गलत नंबर भी लग जाता तो हँसकर जवाब दिया करते थे। बच्चों की कल्पनाशक्ति विकसित करने के लिए कहानियों का सहारा लिया करते थे। तीज-त्यौहार खुशी से मनाते थे। घर की बनाई हुई वस्तुओं जैसे अचार, बड़ी, पापड़ को बनाकर समय का सदुपयोग किया करते थे। समाचार-पत्र को बहुत बार पढ़ा करते थे। वर्ग- पहेली को सॉल्व करने की कोशिश करते जिससे दिमाग की सक्रियता बढ़ती है। खाना खाने के नियमों का पालन, जल ग्रहण करने का नियम, खाने के पश्चात वज्रासन में बैठना यह सब उनके जीवन की व्यवस्थित दिनचर्या में शामिल था। मंदिर जाकर ईश्वर की आराधना भी उनके लिए एक्यूप्रेशर और मेडिटेशन का स्वरूप था। वे हमेशा शुभ-शुभ बोलने पर बल दिया करते थे। कहते थे कि पूरे दिन में एक बार माँ सरस्वती मुख पर विराजमान होती है।
भगवान की पूजा के लिए वे फूलों का संग्रह करते थे। नियमित पूजन-पाठ पर वे बल दिया करते है। अपने बच्चों को शिक्षा देते समय वे गुरुओं पर कभी भी संदेह नहीं करते थे, वरन पूर्ण विश्वास से बच्चे के हित के अनुरूप निर्णय पर बल देते थे। हमेशा पैदल यात्रा के द्वारा ही वे अपने छोटे-छोटे काम निपटा लिया करते थे। आज हम ऑनलाइन पेमेंट करते है जिसमें हम ज्यादा भाव-ताव पर ध्यान नहीं देते पर प्राचीन पीढ़ी भाव-ताव कर धन के संग्रह पर भी बल देती थी। पुरानी पीढ़ी हमेशा ताजा खाना खाने पर बल दिया करती थी, इतना ही नहीं वे यात्रा में भी घर के बने भोजन को ही प्राथमिकता देते थे। व्यंजनों की कमी नहीं थी पर हर व्यंजन उत्तम स्वास्थ्य के अनुरूप ही बना होता था। ईश्वर को अर्पित करके भोजन करना उनकी प्रमुख विशेषता थी। राह चलते भी यदि कोई व्यक्ति मिलेगा तो वे सदैव उससे मित्रवत व्यवहार करते थे। यह वहीं पीढ़ी है जो हर समय तिथियों को याद रखती है, फिर वह चाहे एकादशी हो, अमावस्या हो या चतुर्थी। यह पीढ़ी अपने बच्चों को टायर से खेलने, पुराने मोजों से बॉल बनाने, गिल्ली-डंडा जैसे खेल खिलाती थी जो कम कीमत के और प्रकृति के समीप होते थे। वे मंत्र उच्चारण के विधान से भी परिचित थे क्योंकि उनसे एकाग्रता बढ़ती है और आत्मिक शांति मिलती है। उनकी खुशियाँ लाइक और कमेंट पर निर्भर नहीं थी। उनके रिश्तों में आत्मीयता थी। उनकी दोस्ती भी निःस्वार्थ भाव से परिपूरित थी।
आज हम कई स्वास्थ्य संबंधी एवं मानसिक समस्याओं से जूझ रहे है पर हम पुरानी पीढ़ी के विज्ञान को नहीं समझ पा रहे है। उनकी त्वचा देखभाल में भी दही-बेसन, नाभि में तेल लगाना, नियमित तेल की मालिश शामिल था। वह सबकुछ आर्थिक एवं शारीरिक रूप से हितकर था। नियमित दिनचर्या के फ़ायदों से वे भली-भाँति परिचित थे। अव्यवस्थित जीवनशैली के नुकसान हम आज भोग रहे है। व्रत का विधान, नियमित सैर, प्रेमपूर्वक भोजन बनाना और परोसना प्रत्येक पक्ष के पीछे का महत्वपूर्ण ज्ञान उन्हें पता था जोकि विचारणीय है। यदि पुरानी पीढ़ी के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का हम सहीं विश्लेषण करें तो हम भावी पीढ़ी को एक समृद्ध जीवनशैली और उत्तम स्वास्थ्य दे सकते है।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)