पिछले वर्षों में कोरोना महामारी हमें सब याद दिला रही थी। हमने जीवन जीने की कला को भुला दिया था, हड़बड़ी थी बड़ा बनने की, ज्यादा से ज्यादा कमाने की, बड़ा घर, सुन्दर बीवी, दौलत सब-कुछ जल्दी से जल्दी बनाने की पर भूल गये जीना कैसे है।
पैकिट फूड ने जगह ले ली ताजा खाने की, फ्रिज ने जगह ले ली ठंडे पानी के माटी के सुगन्धित मटके की। हर कोई तो जीने का तरीका रूपये-पैसे में खोज रहा है। हड़बड़ी मची है अंधी दौड़ में सबसे आगे निकलने की।
फिर कोरोना का दौर आया। हड़बड़ी मजबूर करने लगी, जीने के लिए रोना पड़ रहा है। बीमारी में कोई साथ नहीं, अस्पताल में अकेला आदमी सांसों की जंग लड़ रहा है। पहले सांस लेने की फुर्सत नहीं थी, अब सांस लेना मुश्किल हो रहा है। अपनों का साथ पहले हमने छोड़ा था अब अपने साथ नहीं। सबने अपनी-अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ी। पड़ा था बेजान श्मशान में, कोई अपना नहीं। मुर्दों की महफिल है, यहां पर कोई रोने वाला नहीं। इच्छा थी सब कुछ सुधार लूंगा बस यह सांसों की डोर न टूटे।
यही तो है आज के आदमी की नियति। क्या हम पीछे की इन घटनाओं से कुछ सबक लेंगे, नहीं लेंगे तो पछतायेंगे।