नई दिल्ली। दिल्ली की एक अदालत ने सोमवार को आजतक न्यूज चैनल को अगली सुनवाई तक श्रद्धा वाकर हत्याकांड के आरोपी आफताब अमीन पूनावाला के नार्को विश्लेषण और मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन के निष्कर्षो को प्रसारित नहीं करने का निर्देश दिया। साकेत कोर्ट परिसर की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश मनीषा खुराना कक्कड़ ने दिल्ली पुलिस को मामले में दर्ज प्राथमिकी से संबंधित किसी भी सामग्री को प्रसारित करने या प्रकाशित करने से रोकने के लिए उनके आवेदन में अनुरोधित उपाय का पालन करने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की स्वतंत्रता प्रदान की।
कक्कड़ ने कहा, उक्त दस्तावेज का प्रकाशन, विशेष रूप से सीसीटीवी फुटेज, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) के तहत अभियुक्तों के निष्पक्ष परीक्षण के अधिकार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और चैनल को इसकी सामग्री को प्रसारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
उन्होंने 2001 के दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि कार्यवाही शुरू होने के बाद मीडिया का न्याय प्रशासन में कोई स्थान नहीं है। अदालत ने तब समाचार चैनल के वकील द्वारा उपक्रम पर ध्यान दिया कि वह अगले तीन दिनों के लिए वॉयस लेयर्ड टेस्ट, नार्को विश्लेषण, या डॉ. प्रैक्टो के ऐप पर ली गई बातचीत की सामग्री को प्रसारित, प्रकाशित या अन्यथा उपलब्ध नहीं कराएगा।
अदालत ने कहा, इस प्रकार, आज अदालत में उक्त चैनल की ओर से दिए गए वचन पत्र के मद्देनजर और उक्त निर्णयों के मद्देनजर, वह चैनल अगले तीन दिनों तक यानी 20 अप्रैल तक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन और वॉयस लेयर्ड टेस्ट, नार्को एनालिसिस और ऐप ऑफ डॉ प्रैक्टो/दस्तावेजों के साथ-साथ चार्जशीट और सीसीटीवी फुटेज पर रिकॉर्ड की गई बातचीत का प्रसारण नहीं करेगा।
न्यायाधीश ने कहा, आप (दिल्ली पुलिस) भी संवैधानिक अदालत का रुख कर सकते हैं और अपने उपाय का प्रयोग कर सकते हैं। आपको एक ऐसे आदेश की आवश्यकता है जो अन्य चैनलों के साथ भी आपकी मदद करे। उच्च न्यायालय से आदेश प्राप्त करना आपके पक्ष में होगा। विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद ने दावा किया कि क्योंकि डिजिटल सामग्री प्रकृति से संवेदनशील है, इसे प्रसारित करने से कानून और व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के अलावा आरोपी के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को खतरा होगा।
उन्होंने कहा, मीडिया ट्रायल न केवल आम जनता के मन में पूर्वाग्रह पैदा करता है, बल्कि निर्णय लेने के दौरान अदालत पर दबाव भी डालता है। आज तक के वकील ने तर्क दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वर्तमान अदालत को इस तरह के किसी भी संयम आदेश को पारित करने का अधिकार दे सके और इस आशय के उदाहरण हैं कि केवल संवैधानिक न्यायालयों (सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों) के पास ही ऐसी अंतर्निहित शक्ति है।
उन्होंने कहा कि इस तरह की सामग्री प्रसारित होने की स्थिति में आरोपी के प्रति कोई पूर्वाग्रह होने की संभावना नहीं है। 10 अप्रैल को अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि इस तरह के प्रसारण से न केवल मामले को नुकसान होगा, बल्कि आरोपी और पीड़िता के परिवार के सदस्यों पर भी इसका असर पड़ेगा।