मेरठ। आज ईद मिलाद-उन-नबी के मौके पर रात से मजलिशों का दौर जारी है। अजाखानों और कब्रिस्तान में कुरानख्वानी हो रही है। जगह-जगह मजलिशों का दौर जारी है। मजलिशों में मुसलमानों को दीन और इमान की राह में चलने की सीख दी जा रही है। जिहाद से दूर रहकर देश की तरक्की और अमन की खातिर काम करने की सीख दी गई है। पीर ए पाक मस्जिद में आयोजित एक मजलिश में वक्ता मौलाना फजलूद्दीन सैफी ने मजलिश को खिताब किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि समकालीन युग में, जिहाद शब्द अतिवाद से जुड़ा हुआ है। मीडिया ने एक कट्टरपंथी मुस्लिम द्वारा किसी भी हिंसक कृत्य को ‘जिहाद’ के रूप में इतना नियमित किया कि मुस्लिम जिहाद और आतंकवाद को अक्सर पर्यायवाची माना जाने लगा है। हालांकि, ‘जिहाद’ का अर्थ और व्याख्या अलग-अलग होती है और व्यक्ति की व्यक्तिगत समझ पर निर्भर करती है। जिहाद, कोई भी कार्य (अहिंसक) हो सकता है जिसका उद्देश्य किसी व्यक्ति या समाज को समग्र रूप से बदलना है। जिहाद का अर्थ है, अन्याय का विनाश और बेहतरी की दिशा में “संघर्ष” या “प्रयास करना”। उन्होंने कहा कि
इस शब्द की पश्चिमी व्याख्याओं ने, इसके वास्तविक सार और महत्व को कम कर दिया है। जिहाद किसी भी तरह से नागरिकों के खिलाफ हिंसा का समर्थन नहीं करता है और न ही आक्रामक युद्ध को प्रोत्साहित करता है। वास्तव में, इस्लामी विचार, हमलों और धमकियों के मद्देनजर जिहाद को एक रक्षात्मक रणनीति के रूप में इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।
इस्लाम और जिहाद को हमेशा धार्मिक वैधता प्राप्त करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया है। चरमपंथी संगठन, धार्मिक ग्रंथों में संदर्भों की तलाश के अलावा अपने कार्यों और योजनाओं के औचित्य के लिए साधन ढूंढते हैं और तदनुसार उन संदर्भों को उपयुक्त बनाते हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमानों को बुराई के रास्ते को छोड़कर अमन के रास्ते पर चलना चाहिए। कुछ संगठनों ने जिहाद जैसी धार्मिक अवधारणाओं के मूल सार को न केवल क्षतिग्रस्त किया है। बल्कि विकृत किया है। इस तथ्य से कोई बचा नहीं है कि 9/11 से आज तक, आम मुसलमानों को “आइडेंटिटी क्राइसिस” का सामना करना पड़ता है और दुनिया भर के समाजों में बड़े पैमाने पर फैली भ्रांतियों के कारण निरंतर अलगाव का सामना करना पड़ता है।