मन का शरीर के साथ बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है। प्रत्यक्ष में तो सब प्रकार के कार्य हमारी इन्द्रियां ही करती हैं पर वास्तव में उनका संचालन करने वाला मन ही होता है इसीलिए मानसिक विचारों का प्रभाव शरीर पर सदैव पड़ता रहता है।
हमारा भोजन भी इससे अछूता नहीं रहता। स्वास्थ्य ग्रंथों में कहा गया है कि मनुष्य जैसा भोजन करता है, वैसा ही प्रभाव उसके मन पर पड़ता है। इसी दृष्टि से सात्विक, राजसिक व तामसिक भोजन का वर्णन विस्तार पूर्वक मिलता है। इसी कारण यह उक्ति कही गई है कि ‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।’
इस सिद्धांत का एक दूसरा पहलू भी होता है। जिस प्रकार भोजन का प्रभाव मन पर पड़ता है उसी प्रकार मन के विचारों और उसकी दशा का असर भोजन पर भी पड़ता है। भोजन के समय जो शांत और प्रसन्नचित रहने की सलाह दी जाती है, उसका अर्थ यही है कि किसी भी प्रकार की उत्तेजना, आवेश, क्रोध या मानसिक हलचल की अवस्था में किया हुआ भोजन ठीक तरह से पचता नहीं है और उससे शरीर को उचित लाभ भी नहीं होता। अनेक बार तो विशेष उत्तेजनाओं की दशा में किया हुआ भोजन शरीर को सीधे हानि पहुंचाता है।
कामुकता के भाव उदय होते ही शरीर की गर्मी बढ़ जाती है। श्वास गरम हो जाता है, त्वचा का तापमान और खून का दौरा बढ़ जाता है। इसी गर्मी के दाह से कुछ धातुएं पिघलने और कुछ जलने लगती हैं। ऐसे समय में किया गया भोजन अपच करता है, दूषित रक्त बनाता है और विवेकहीनता को जन्म देता है।
क्रोधित अवस्था में किया गया भोजन भी शरीर पर बहुत अधिक हानिकारक प्रभाव डालता है। न्यूयार्क में वैज्ञानिकों ने परीक्षा करने के लिए गुस्से में भरे हुए मनुष्य के खून की कुछ बूंदें लेकर पिचकारी द्वारा खरगोश के शरीर में पहुंचायीं। नतीजा यह हुआ कि बाइस मिनट बाद खरगोश आदमियों को काटने लगा। एक घंटे के बाद स्वयं पांव पटक-पटक कर मर गया।
क्रोध के कारण पैदा होने वाली विषैली शर्करा खून को अत्यधिक अशुद्ध कर देती है। इस अशुद्धता के कारण चेहरा लाल और सारा शरीर पीला पड़ जाता है। पाचन शक्ति बिगड़ जाती है, नसें खिंचती हैं और गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है। क्रोधित अवस्था में किया गया भोजन शरीर के लिए नुक्सानदेह ही सिद्ध होता है। इस अवस्था में पाचक रसों के स्थान पर विषैले अम्ल उत्पन्न होने लगते हैं। ये अम्ल भोजन के साथ मिलकर शरीर के अवयवों में विकृति पैदा कर देते हैं।
क्रोध के समय एक गिलास ठंडा पानी पी लेना आयुर्वेदिक चिकित्सा है। इससे मस्तिष्क और शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शांत हो जाती है। एक विद्धान के मतानुसार जिस स्थान पर क्रोध आये, वहां से उठकर चले जाना या किसी और काम में लग जाना अच्छा होता है। इससे मन की दिशा बदल जाती है तथा चित्त का झुकाव दूसरी ओर हो जाता है। कुछ समय बाद शांत मन: स्थिति में भोजन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायी होता है।
लोभ की मनोदशा में भोजन करने के फलस्वरूप शरीर में जमा करने की क्रिया अधिक और त्यागने की कम होने लगती है। पेट पर इसका असर तुरंत पड़ता है। दस्त साफ होने में रूकावट पडऩे लगती है। पेट भरा-भरा सा लगता रहता है। शौच के समय आंतों की मांसपेशियां अपने संचालक अर्थात् सुस्त मन का आदेश पालन करती हैं।
इस अवस्था में मांस-पेशियां त्याग में बड़ी कंजूसी करती हैं। फलस्वरूप जो मल अत्यधिक मात्रा में होता है, वही निकलता है, बाकी पेट में ज्यों का त्यों पड़ा रहता है और गल सड़ कर विषों की उत्पति करता है। पेट का विष रक्त में सम्मिलित होकर असंख्य रोगों का घर बन जाता है। हृदय की अधिक धड़कन, सिर का दर्द, निद्रा की कमी तथा गठिया रोग, अक्सर इसी प्रकार के दूषित विकार से होता है।
भय का विकार भी शरीर पर अति घातक प्रभाव डालता है। मनुष्य का शरीर सबसे अधिक बलवान और शक्तिशाली होता है। उसमें यदि भय की भावनाएं प्रवेश कर जायें तो शरीर को नष्ट होने में देर नहीं लगती। भय की अवस्था में हमारे शरीर के अंदर की प्रक्रिया में बाधा पड़ जाती है। इन्द्रियों का काम रूक-सा जाता है।
यह रक्त शिराओं के प्रवाह, बीज कोषों के कार्य और पेट की क्रियाओं पर अपना प्रभाव डालता है। इससे हृदय की गति तीव्र हो जाती है, वह जोर से धड़कने लगता है, रक्त दबाव बढ़ जाता है, पाचन क्रिया रूक जाती है और यकृत के जरिये मांसपेशियों से शक्कर निकलने लगती है।
भय की दशा में किया गया भोजन शरीर तथा मन को दुर्बल तथा रोगों का शिकार बनाता है। आमतौर से यह देखा जाता है कि माताएँ बच्चों को आहार खिलाने के लिए भोजन छिन जाने या काला भूत आने जैसे मानसिक भय दिखाती हैं। बच्चों को भोजन कराने का यह तरीका निश्चय ही बदला जाना चाहिए।
इस प्रकार की मानसिक स्थिति से अच्छे पदार्थ का भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है। जो व्यक्ति हर एक पदार्थ में बुराई देखता है, उसे उसका नतीजा वैसे ही मिलता है इसलिए अपनी परिस्थिति या समयानुसार जो कुछ भी सामान्य भोजन मिल सके, उसे प्रसन्नचित्त से और शरीर तथा मन के लिए कल्याणकारी समझकर ग्रहण करना चाहिए।
भोजन करते समय किसी विषय पर गंभीर रूप से विचार करने से या किसी महत्त्वपूर्ण समस्या पर दिमाग दौड़ाने से शरीर का रक्त मस्तिष्क की तरफ ज्यादा जाने लगता है और पाचक यंत्रों में उसकी कमी होने से कमजोरी आ जाती है। इससे पाचन क्रिया में बाधा पडऩे लगती है तथा भोजन देर से या अधूरा पचता है। इसी कारण भोजन एकांत में तथा एकाग्र चित्त से करने का आदेश स्वास्थ्य ग्रंथों में किया गया है।
– आनंद कुमार अनंत