प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले महात्मा गांधी का मत था कि जो प्रभु का प्रेमी होगा, वह भला प्रकृति प्रेमी क्यों न होगा। प्रकृति प्रभु का ही तो प्रकाश है प्रकृति के प्रति यथेष्ट रागात्मक वृत्ति रखने वाले महात्मा गांधी को जब भी अपने व्यस्त कार्यक्रम से अवकाश मिल जाता था तब वे उस समय का पूरा सदुपयोग करते थे। वे स्वयं तो इसमें पूरा रस लेते ही थे परंतु दूसरों को भी आमंत्रित करे थे।
उनकी व्यवस्तता प्रकृति निरीक्षण हेतु बहुत कम समय देती थी, परंतु फिर भी प्रकृति के प्रति उनके मन में विशेष ललक थी, जो उनके जीवन के कुछ प्रसंगों से स्पष्ट हो जाती है। एक बार गांधीजी ने अपनी प्रेमा बहन कटक को एक लम्बा पत्र लिखा। पत्र की समाप्ति पर उन्होंने एक वाक्य लिखा ‘अपने बगीचे के फूलों से मेरा प्रणाम कहना। एक अन्य पत्र में गांधीजी ने लिखा-‘फूलों के पौधों के साथ मेरी तरफ से प्रेमा बहन बातचीत करना व उन्हें आश्वासन देना कि अपने जैसा सौन्दर्य, निष्ठा, नम्रता तथ दृढ़ता और स्वयं की भांति समता और सरलता हमें भी प्रदान करना।
गांधी जी का फूलों के प्रति वैसा ही वात्सल्य भरा ममत्व भाव था, जैसा कि किसी ममतामयी व्यक्ति का बच्चों के प्रति होता है। एक ऐसी ही घटना साबरमती की है जब एक बार साबरमती के आश्रमवासियों ने गांधीजी की 50 वीं वर्षगांठ आश्रम में बड़े ही उत्साह से मनानेकी सोची। जन्म दिवस के रोज सभी ने मिलकर गांधी जी के बैठने के लिए एक सुंदर सा मंच बनाया जिसके चारों कोनों पर केले के पत्ते के चार स्तंभ तथा आसन के स्थान पर हरी-हरी कोमल घास सजाई और उस पर रंग-बिरंगे हार श्रृंगार के फूलों के अलावा गेंदों, व गुलाब के फूल भी बिछाए तथा बीचों-बीच में एक केले का चौड़ा पत्ता रख दिया। सभी मन ही मन सोच रहे थे कि बापू आज इस पर बैठेंगे तो कितने खुश होंगे?
जब सभी लोग यथा स्थान पर बैठ गये व समयानुसार बापू को बुलाया गया। गांधीजी आए और आसन पर बैठने की बजाय नीचे बिछी खजूर की चटाई पर बैठ गये। लोगों ने कहा-बापू! आपके लिए तो हमने इतना सुंदर फूलों का मंच बनाया है, आप उस पर बैठें। इतना सुनते ही बापू उठ खड़े हुए और रोष भरे स्वर में बोले-‘प्रकृति के इतने सुंदर श्रृंगार पर मैं जा बैठूं, क्या इतना मूर्ख हूं मैं? बापू ने मंच के नीचे ही खड़े लोगों में अपना संक्षिप्त भाषण देते हुए खूब डांटा व कहा-‘फूलों को सजावट में भले ही रखें पर न तो इन पर बैठा जाए और न ही इन्हें पांवों तले कुचला जाय। इनमें जितनी खूबसूरती व खुशबू है, क्या यह हम इंसानों में है?
एक घटना उन दिनों की भी है जब बापू दक्षिण भारत की यात्रा पर थे, बापू जिस जगह पर ठहरे थे वहां से एक जल प्रपात बहुत नजदीक था। बापू के साथियों ने प्रात: काल बापू से कहा कि हमारे साथ जल प्रपात देखने चले पर बापू तैयार न हुए लेकिन जब साथियों ने पुन: आग्रह किया कि वह प्रपात बहुत ऊंचाई से गिरता है व बहुत प्रसिद्ध है दूर-दूर से लोग इसे देखने आते हैं, गांधी जी ने कहा, ‘आप मेरी व्यस्तता नहीं देखते। इतना देश का काम सामने पड़ा है, इसे पूरा करुं या प्रपात देखने चलंू।
फिर उन्होंने मुस्कुरा कर कहा-‘क्या वर्षा के पानी से भी ऊपर, ऊंचाई से यह गिरता है? मुझे तो वर्षा के पानी में ही आनंद आता है जो बरसतेे मेह से ईश्वर की कृपा का दर्शन कराता हो, उसे और कौन से सौन्दर्य हेतु लुभाया जा सकता है? इतना सुनकर साथी चुप होकर चले गये। गांधी जी को आकाश दर्शन का भी अद्भुत शौक था। तारों की छाया में खुले मैदान में सोने का इतना शौक था कि वे अफ्रीका में सर्दी की ऋतु में भी शरीर पर मोमजामे का कपड़ा डालकर सोया करते थे। देर रात तक जागकर वे आकाश के तारों को देखकर विशेष आनंद की अनुभूति प्राप्त करते थे।
बात उन दिनों की है, जब गांधी जी यरवदा जेल में सरदार पटेल के साथ बंद थे। एक दिन गांधी जी को यह पता चला कि अगले दिन सूर्यग्रहण लगने वाला है तो उन्होंने एक दिन पहले ही जेल अधीक्षक को बुलाकर कहा कि सामने वाली दीवार मेरे ग्रहण देखने में बाधक है, इसलिए उसके बीच में लगे दरवाजे को तड़के ही खुलवा दें। ऐसा ही किया गया। गांधी अक्सर जेल में दिन भर पटेल से बातें करते थे लेकिन शाम होते ही वे पटेल से कहते थे कि चलो सूर्यास्त देखें। कितना सुंदर दृश्य होता है तो पटेल कहते थे, बापू उगते सूर्य के सभी दर्शन करते हैं व पूजा भी। डूबते हुए सूर्य को क्या देखना? तो बापू कहते हां, कल फिर जब सूर्य निकलेगा तो नहा धोकर उसे भी पूजेंगे। खैर पटेल को उनकी बात माननी पड़ जाती थी।
एक बार बिहार के कुछ लोगों ने तय किया कि वे गांधी जी के नाम पर एक भव्य मंदिर बनवाकर वे उसमें उनकी मूर्ति लगाकर पूजा-अर्चना करेंगे। जब बापू को यह बात पता चली तो उन्होंने इसे नापसंद किया व लोगों को बुलाकर कहा-इससे अंधविश्वास बढ़ेगा। मैं जिन नियमों पर जिया करता हूं उन पर यदि विश्वास है तो मैं आपको सुझाव देता हूं कि आप आश्रम बनाएं व उसमें प्रभु की प्रार्थना करें व साथ ही आश्रम में खूब पेड़ लगायें व सुंदर-सुंदर फूलों के पौधे लगाए तथा किसी भी जाति व धर्म का अंतर न रखते हुए यहां सब मिलकर एकत्र हों। तब इस प्रार्थना भूमि पर पेड़-पौधे से जो फूलों की वर्षा होगी व ताजगी मिलेगी, उससे सभी को सच्चा सुख व शांति प्राप्त होगी।
कहने का तात्पर्य यही है कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी को गिरि, वन, नदी, नद, वर्षा और बादल तथा जीवन जंतु आदि सभी प्रिय थे। वे उस प्रकृति के महान प्रेमी थे जिसमें पशु, पक्षी, मानव आदि सभी समाए हुए हैं। गांधीजी संपूर्ण प्रकृति को हंसता हुआ व प्रसन्न देखना चाहते थे। बस ऐसे ही थे, इस युग के महान दृष्टा प्रकृति के प्रेमी महात्मा गांधी।
चेतन चौहान- विनायक फीचर्स