Wednesday, May 8, 2024

नवरात्रि : वैष्णों देवी

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वैष्णव देवी की यात्रा के लिए जम्मू पहुंचना होता है। जम्मू से कटरा जाने के लिए रेलवे स्टेशन से ही हर समय बसें मिल जाती हैं। जम्मू एक बड़ा शहर है। जम्मू और कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी जम्मू है। हम बस से कटरा के लिए रवाना हो गए। रास्ते में ही वर्षा होने लगी और ठंडक बढ़ गई। यहीं से पहाड़ी इलाका प्रारंभ हो जाता हैं। हम शाम को सात बजे कटरा पहुंच गए। बस से उतरते ही एक लड़के ने अपने घर में रूकने की मुफ्त सुविधा की पेशकश की, बस उसकी शर्त यह थी कि प्रसाद उसी की दुकान से खरीदें। कितने का प्रसाद खरीदें यह स्वैच्छिक था। रात्रि को धीरे-धीरे प्रसाद की राशि चार सौ रुपए तक पहुंच गई। उसने रुकने के लिए एक कमरा दे दिया। हमने भी सोचा कि एक कमरे का किराया वैसे भी दो सौ रूपए प्रतिदिन होता है। हम वहां की स्थिति से भी अनभिज्ञ थे। उसने चार सौ रुपए में वह प्रसाद दिया जो वैष्णव देवी में बोर्ड की दुकान से मात्र इकतीस रुपए में मिलता है। इसी प्रकार वहां से सतना के लिए फोन किया तो उसका बिल बाईस रुपए आया और दूसरा फोन झांसी के लिए करने पर एकदम छियासठ रुपए हो गया। कुछ अच्छे लोग भी हैं। कुछ धर्मशालाएं यात्रियों को नाम मात्र के दान पर ठहरने और कम्बल, दरी आदि मुफ्त देने की सुविधाएं देती हैं।
त्रिकूट पर्वत पर स्थित वैष्णव देवी के दर्शन के लिए यात्रा की अनुमति लेनी पड़ती है। हमें यात्रा पर्ची प्रात: करीब नौ बजे प्राप्त हो सकी। वैष्णव देवी के बारह कि.मी. मार्ग पर कई चैक पोस्ट हैं। वहां यह पर्ची दिखाकर मेटल डिटेक्टर से निकलना पड़ता है। कई जगह सामान की भी चैकिंग होती है। यह सारी व्यवस्था सरकार द्वारा आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए की गई है। टोही सैनिक विमान भी इस पूरे क्षेत्र का सर्वेक्षण करते रहते हैं। रेलवे स्टेशन जम्मू में भी मैंने पुलिस के खोजी कुत्ते देखे।  हमने अर्धक्वांरी तक की छह किलोमीटर की चढाई पैदल ही पार करने का निश्चय किया। शुरू में ऐसी ही उमंग रहती है।
मार्ग में काफी दूर तक अनेक दुकानें शीतल पेय, रस, सोडा, चाय, कॉफी, प्रसाद आदि की थीं। वहां इच्छानुसार कुछ लेते, सुस्ताते हम लोग बढऩे लगे। आगे ये दुकानें खत्म हो गईं और भोजन के समय हमें बिस्कुटों से काम चलाना पड़ा। आसमान साफ होने से धूप भी कड़ी थी। बीच-बीच में बने टीन के शेडों में हम कुछ देर बैठ जाते और फिर चल पड़ते। अर्धक्वांरी तक पहुंचते-पहुंचते शाम के चार बज गये। वहां मिठाई, चाय, होटल आदि देखकर प्रसन्नता हुई। दर्शन के लिए यात्रा पर्ची देखकर वहां भी नम्बर की पर्चियां दी जा रही थीं। हम लोगों का 155 नम्बर था और उस समय 63 वां नम्बर चल रहा था। वहां रात में रूकने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
अर्धक्वांरी की संंपूर्ण व्यवस्था भी बोर्ड के अधीन थी। बोर्ड ने यात्रियों के ठहरने के लिए दो धर्मशालाएं और कई शेड्स बनवा दिए हैं। यात्रियों को मुफ्त कम्बल दिए जाते हैं। दो सुलभ शौचालय अलग हटकर थे। बोर्ड अपना एक भोजनालय भी चलाता है। चाय, कॉफी के उसके स्टॉल भी हैं। इसलिए यात्रियों को उचित कीमत पर सब सुविधाएं मिल जाती हैं। भीड़ होने के बावजूद हमें वहां रुकने में कोई परेशानी नहीं हुई।
अर्धक्वारी में दर्शन की प्रतीक्षा में पूरा दिन बीत गया। उस दिन शाम को पांच बजे नम्बर आया। वहां एक मंदिर है जिसमें देवी की प्रतिमा है। उसी के बगल से एक संकरी गुफा हेै, जिसमें दर्शनार्थी प्रवेश करके दूसरी ओर ऊपर मंदिर के द्वार पर आ जाता है। कहा जाता है कि इस गुफा में देवी ने तपस्या की थी परन्तु वह गुफा इतनी तंग है कि उसमें कोई बैठ नहीं सकता। मान्यता के अनुसार वैष्णव देवी के दर्शन के पूर्व अर्धक्वांरी के दर्शन करना आवश्यक है।
अर्धक्वांरी से सांय सात बजे हम लोगों ने घोड़े ले लिए। इधर से ऊपर की खड़ी चढ़ाई है और रास्ता संकरा। वैसे यह मार्ग रात-दिन चलता है। मार्ग में बिजली की व्यवस्था रहती है। अर्धक्वांरी और वैष्णव देवी के मध्य मार्ग में शान्ति छाया निवास है, जिसमें यात्रियों के मुफ्त ठहरने की सुविधा है। हम लोग देवी का स्मरण करते हुए साढ़े नौ-दस बजे रात्रि में वैष्णव देवी पहुंच गए। रात्रि में पहाड़ी सौन्दर्य का आनन्द अवश्य नहीं ले पाए।
वैष्णव देवी में अर्धक्वांरी से अधिक भीड़ थी। यहां भी बोर्ड ने यात्रियों के लिए कई भवन, शौचालय आदि बनवा दिए हैं। यहां भी मुफ्त कम्बलों की व्यवस्था है। बोर्ड का बड़ा भोजनालय चलता है और उसका खण्डों में विस्तार किया गया है। इसलिए रात्रि निवास में कोई असुविधा नहीं हुई। यहां भी हम लोगों ने यात्रा पर्ची दिखाकर दर्शन का नम्बर ले लिया। हमारा 63 वां नम्बर था और उस समय तीसवां नम्बर चल रहा था। यह नम्बर संभवत: चार-पांच बजे प्रात: आता। परन्तु एक सज्जन ने अपना पहले का नम्बर दे दिया। इसलिए रात्रि साढे बारह बजे ही दो फर्लांग लम्बी कतार में लग जाना पड़ा। वहां से पहाड़ की एक समतल जगह पर एक बड़े हाल में दो शेरों के पीछे वस्त्र से ढंकी पत्थर की लेटी हुई प्रतिमा थी। संभवत: यही देवी के द्वारा मारे गए भैरों की लाश थी। वहां से ऊपर चढ़ते हुए पहाड़ के अधबीच में एक मैदान सा था। वहां से वैष्णव देवी की गुफा में प्रवेश मार्ग था। वहां सब मेरी कल्पना के विपरीत था। मैंने पहले के दर्शनार्थियों से जो विवरण सुना था और हरिद्वार आदि स्थानों में वैष्णव देवी के मन्दिर देखे थे उसके विपरीत वहां न कोई प्राकृतिक गुफा थी और न उसमें कहीं एक बूंद पानी था। उल्टे बढिय़ा पक्के फर्श के साथ बड़े पाइप की तरह गोलाकार मार्ग था। जिस स्थान पर देवी थीं, वहां एक वृक्ष अवश्य था, उसी के नीचे कुछ पत्थर रखे थे और बगल में महाकाली, महादुर्गा और महाशारदा की मूर्तियां रखी थीं। यात्रियों को एक क्षण भी वहां दर्शन के लिए समय नहीं दिया जाता था और वहां ड्ïयूटी पर तैनात सिपाही तुरन्त यात्री को बाहर कर देता था। बाहर निकलने के लिए वहीं दूसरी ओर से चट्ïटानेेंं तोड़कर मार्ग बना दिया गया था। वैसे जगह-जगह पर बोर्ड ने लिखबा दिया था कि वैष्णव देवी की न कोई मूृर्ति है और न चित्राकार। देवी पत्थर की पिण्डी के रूप में हैं, उन्हीं का ध्यान करें। बाहर जाने के मार्ग में पहाड़ी से नीचे की ओर एक शिव मन्दिर है। वहां अवश्य ऊपर से पानी गिरता है। बोर्ड ने पूजा के लिए पण्डितों और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति की है।
हम लोग सुबह जल्दी तैयार होकर और एक-एक कप काफी पीकर भैरो घाटी की ओर बढ़े। वैष्णव देवी से भैरो के मंदिर तक 2 कि.मी. की ऊंची चढ़ाई है। इसलिए हम लोगों ने घोड़े ले लिए। हम लोग शिखर पर नौ बजने के पूर्व ही पहुंच गये। मंदिर नौ बजे खुलता था। इसलिए कुछ प्रतीक्षा करनी पड़ी।
यात्रियों की भीड़ भी बढ़ गयी। उस मन्दिर में सिन्दूर से पुती हुई दो छोटी मूर्तियां थीं एक सफेद वस्त्र पहने हुए हनुमान जी की और एक काला वस्त्र पहने हुए भैंरो बाबा की। इसके अलावा उनकी पृथक पहचान मुश्किल थी। हम लोग दर्शन करके पैदल ही नीचे उतरे। चारों और पहाड़ों का प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर बड़ा अच्छा लगा। एक स्थान पर हम लोगों ने नाश्ता किया। इसके बाद धूप बढ़ गई तथा साथ में हमारी थकान भी। शीतल पेय, कॉफी आदि पीते हुए हम लोग 2 बजे अर्धक्वांरी पहुंचे। वहां भोजन करके कुछ देर विश्राम किया। सायं 5 बजे वहां से हम लोगों ने फिर घोड़े ले लिए और 7 बजे कटरा पहुंच गए। प्रवेश द्वार से बस स्टैण्ड के लिए आटो चलते हैंं। आये भी हम आटो से थे और उसी से वापस बस स्टैण्ड पहुंचे।
बस स्टैण्ड से लगा हुआ ही कटरा का बाजार है। कटरा में यात्रियों के ठहरने के लिए अनेक आरामदायक होटलें, धर्मशालाएं कॉटेज आदि हैं। रात को हमें कटरा में ही रुकना था हम लोग बस स्टेण्ड के समीप ही श्रीधर धर्मशाला में आ गए।
उन्होंने मात्र इक्यावन रुपए लेकर हमें दूसरे दिन तक के लिए जगह दे दी। हमें वहां कोई परेशानी नहीं हुई। मेरी पत्नी रात को दूसरे दिन भी बाजार में खरीददारी करती रही। दोपहर का भोजन करने के बाद हम लोग शाम को जम्मू आ गये। इस पूरे क्षेत्र में दालें, सब्जियां, मिठाइयां आदि नहीं मिलतीं। चावल, राजमा, छोले, दही, पराठे, तन्दूरी मैदे की रोटी आदि में ही चुनाव करना पड़ता है। इस यात्रा की अनेक कड़वी-मीठी स्मृतियों के साथ हम जम्मू से चलकर लगभग ग्यारह बजे प्रात: दिल्ली पहुंचे।
डॉ. परमलाल गुप्त -विभूति फीचर्स

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