Sunday, May 5, 2024

कहानी: आस्था: मेरा जीवन धन

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आस्था की जुबान, जब वह तीन बरस की थी, एक हादसे में बंद हो गई थी। उसके पिता प्रो. सुधीर ने उसे बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया। पण्डे, पुजारी, मौलवियों को दिखाया। मंदिर, दरगाह की चौखटें चूमीं, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। वे मातृहीन आस्था को देखते और ईश्वर पर से उनका विश्वास डिगने लगता। वे सोचते- जब ईश्वर को, उसकी आवाज ही छीननी थी तो उसे अप्सरा का सा रूप क्यों दिया।
धीरे-धीरे आस्था, पन्द्रह वर्ष की हो गई। उसने अकेले ही सारा घर संभाल लिया था। सुधीर को लगता शायद वह, किसी जन्म की उसकी मां है, जो इस जन्म में बेटी बनकर पैदा हुई है।
एकांत के क्षणों में उन्हें आशा की याद हो आती है और वे भरे मन से उस निर्मम की यादों में खो जाते।
आशा और सुधीर का ब्याह बचपन में ही तय हो गया था। आशा, मास्टर कालीचरन की इकलौती बेटी थी। अपनी मां की असामयिक मृत्यु के समय ही उसने तय कर लिया था कि वह डॉक्टर बनेगी। सुधीर के पिता को भी लड़की के डॉक्टरी पढऩे में कोई आपत्ति नहीं थी। पी.एम.टी. में सफलता पाने के बाद आशा को मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया किन्तु मास्टर कालीचरन ने इसके पहले ही दोनों को विवाह के सूत्र में बांध दिया।
सुधीर पढ़-लिखकर अपने ही शहर के कॉलेज में लेक्चरर हो गया था। वह आशा को जी-जान से प्यार करता, सच पूछो तो वह आशा के पत्रों के इंतजार में ही जी रहा था।
कुछ दिनों तक आशा के पत्र नियमित रूप से आते रहे, फिर क्रमश: उनका फासला बढ़ता गया। जब आशा छुट्टियों में केवल दो-चार दिनों के लिये आती और कोई न कोई बहाना बनाकर वापस लौट जाती। इस बीच उसका नाम कई-कई लोगों से जुड़ता रहा, लेकिन सुधीर को अपने प्यार पर विश्वास था। उसने इन अफवाहों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
जैसे-जैसे आशा के कॉलेज से निकलने का दिन करीब आता जाता, उसकी बेचैनी बढ़ती जाती। आशा की नियुक्ति बतौर अप्रेंटिस छह माह के लिए शहर के ही अस्पताल में हो गई थी। यद्यपि आशा अब सुधीर के साथ थी किन्तु उसे लगता कि उसका ब्याह, जिस आशा के साथ हुआ था, जिसे वह बचपन से जानता है, यह वह आशा नहीं है। एक ही छत के नीचे दोनों दो अनजबियों की तरह रह रहे थे। कुछ समय बाद आशा की पोस्टिंग दूर दूसरे शहर में हो गई। कभी सुधीर वहां जाता। कभी आशा यहां आ जाती। इन्हीं दिनों आस्था का जन्म हुआ।
सुधीर को चारों ओर से सूचना मिल रही थी कि आशा का मेलजोल डॉ. अहमद से बढ़ गया है और वह हरदम उसी के साथ देखी जाती है। डॉ. अहमद आशा का सहपाठी रह चुका था और संयोग से वह भी उसी अस्पताल में तैनात था।
आशा ने अवांछित मातृत्व से छुटकारा पाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन आस्था ने भी शायद उसे मातृत्व का गौरव दिलाने का प्रण कर लिया था। आशा तो आस्था को जन्म देने के पश्चात अपने कर्तव्य से मुक्त हो गई और आस्था को आया-नर्सों ने संभाल लिया।
आशा और सुधीर के बीच की दूरी क्रमश: बढ़ती जा रही थी और डॉ. अहमद दिन-ब-दिन आशा के करीब आता जा रहा था।
सुधीर के कांधों से लिपटकर आस्था, तीन वर्ष की हो गई थी। एक दिन सुधीर ने इस मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिये आशा से सीधी बात करने का निश्चय किया। आशा, शायद इसी दिन की प्रतीक्षा कर रही थी। बातों ही बातों में वह बारूद की तरह फट गई और चीख-चीखकर सुधीर को भला-बुरा कहती हुई घर छोडऩे पर आमादा हो गई। आस्था घबराकर रोती हुई आशा की टांगों से चिपट गई किन्तु उसने उसे भी निर्दयता से झटक दिया और उसके फूल से गालों पर थप्पड़ मारकर बाहर निकल गई।
आस्था के आंसू आंखों के रास्ते शायद दिल में उतर गये और उसी दिन से उसकी जुबान बंद हो गई। सुधीर ने समझ लिया कि आशा जैसी औरतें, नसीहत से नहीं, ठोकर खाने पर ही संभल सकती हैं। इसके बाद से उसने उसकी चर्चा ही छोड़ दी। बीच में सुना था कि डॉ. अहमद ने सरकारी नौकरी छोड़कर अपना निजी अस्पताल खोल लिया है और आशा उसके घर बैठ गई है। कुछ दिनों बाद सुधीर ने वह शहर ही छोड़ दिया।
एक दिन सुधीर को पता चला कि लायन्स क्लब की ओर से शहर में चिकित्सा शिविर का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. रुपाली भी आ रही हैं। उसने एक बार आस्था को डॉ. रुपाली को दिखाने का निश्चय किया।
लायन्स क्लब के सचिव मि. मेहरोत्रा, सुधीर के अच्छे परिचितों में थे। उन्होंने शिविर के बाद डॉ. रुपाली को घर आकर आस्था को देखने पर राजी कर लिया। निश्चित दिन मि. मेहरोत्रा ने सुधीर को फोन किया कि वे ड्राइवर के साथ डॉ. रुपाली को घर भेज रहे हैं। आवश्यक कार्य की वजह से साथ न आ पाने के लिये उन्होंने क्षमा भी मांग ली।
मि. मेहरोत्रा की गाड़ी, डॉ. रुपाली को सुधीर के घर छोड़ गई। डॉ. रुपाली सफेद बनारसी सिल्क की साड़ी में लिपटी थीं। आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ा था। दोनों कनपटियों पर कुछ चांदी के तार उग आये थे। उसके भव्य व्यक्तित्व में एक अजीब-सी गंभीरता थी।
आइये डॉक्टर। सुधीर ने विनम्रता से कहा।
तुम…. आप।
डॉ. रुपाली, जैसे सिर से पांव तक कांप गई।
हां, डॉक्टर मैं सुधीर हूं… एक बदनसीब पिता। आपसे, अपनी बेटी की जिन्दगी की भीख मांगता हूं।
हे ईश्वर, अब और कौन-सी अग्नि परीक्षा शेष रह गई है।
रुपाली स्वत: बोली।
कुछ कहा डॉक्टर?
नहीं। जरा अपनी बच्ची और अपनी पत्नी को बुलवाइये तथा पूरी घटना संक्षेप में बतलाइये।
डॉक्टर मेरी पत्नी स्वप्नदृष्टा थी। शबनम को मोती समझने की भूल कर बैठी। सोने को ठुकराकर पीतल के आकर्षण में खो गई। एक दिन जब वह भावावेश में घर छोड़कर जाने लगी मेरी अबोध बच्ची उसकी टांगों से लिपटकर रोने लगी, लेकिन उसने निर्ममता से उसे झिड़क दिया और उसके गालों पर थप्पड़ मारकर चली गई, उसी सदमे ने इसकी आवाज छीन ली।
आपकी पत्नी का नाम क्या था?
आशा।
और बच्ची का नाम क्या है?
आस्था। यही नाम, हम दोनों ने तजवीज किया था।
हे भगवान, तो तुमने अब तक अपना दूसरा ब्याह नहीं किया और आस्था मेरी बच्ची है। वह स्वत: बोली।
इसी वक्त आस्था, चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर भीतर आ गई। जैसे हजारों सूर्य एक साथ जल उठे हों वैसे ही आस्था के रूप से कमरा जगमगा उठा। आशा को लगा, जैसे उसके यौवन की प्रतिमूर्ति ही सजीव रूप में सामने आ खड़ी हुई है।
बैठो बेटी। डॉ. रुपाली ने स्निग्ध स्वर में कहा।
आस्था खड़ी रही और सुधीर के हाथों में एक चिट थमा दी।
पापा
मैंने सब सुन-समझ लिया है। तुम डॉक्टर से कह दो कि मुझे उनसे अपना इलाज नहीं करवाना है।
सुधीर ने चिट टेबल पर रख दी और चाय बनाने लगा। डॉ. रुपाली ने एक नजर चिट की ओर देखा, फिर वह बड़े आत्मविश्वास से उठी और सुधीर के कंधे पर हाथ रखकर बोली- सुधीर, तुम जानते हो कि मैं कानूनी रूप से आज भी तुम्हारी पत्नी हूं। हमारा अभी तक तलाक नहीं हुआ है। मैं, अब अपने इसी घर में रहना चाहती हूं।
सुधीर हक्का-बक्का होकर उसका मुंह देखने लगा। इस तरह क्या देख रहे हो। आस्था पर जितना हक तुम्हारा है, उतना ही मेरा है। मैं उसकी मां हूं। मैंने उसे जन्म दिया है।
आस्था खड़ी-खड़ी क्रोध में बिफरी जा रही है और हाथ नचा-नचाकर अपना विरोध प्रकट कर रही थी। रुपाली घूम-घूमकर घर देखने लगी और सुधीर को बताने लगी कि यह उसका बेडरूम होगा। यह ड्राइंग रूम होगा। आस्था के लिये उसने बरामदे के सिरे पर बना कमरा तजवीज किया।
आस्था का क्रोध अब अपने चरम पर पहुंच गया था। वह झपटकर रुपाली के बीच में आ गई और उसका हाथ खींचकर उसे बाहर करने लगी। रुपाली ने हाथ छुड़ाते हुये एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया।
आस्था, वहीं चीखकर गिर पड़ी और अचेत हो गई।
सुधीर मूकदर्शक-सा सब कुछ देख रहा था। डॉ. रुपाली ने दौड़कर अपना बैग उठाया और शीघ्रता से आस्था को एक इंजेक्शन लगा दिया। माथे पर आये पसीने को पोंछकर वह आस्था के पास कुर्सी खींचकर बैठ गई।
रुपाली के आंसू, बांध फोड़कर बाहर निकल पड़ रहे थे। वह उन्हें आंचल में समेटने का असफल प्रयास कर रही थी। सुधीर ने कई बार उससे चाय का आग्रह किया किन्तु उसने मना कर दिया। पूरे तीन घण्टे बाद आस्था के होठों पर कुछ हलचल हुई।
ममा! पहला शब्द उसके होठों से निकला।
रुपाली और सुधीर की आंखें प्रसन्नता से नम हो गईं। रूपाली के आंसू टूटकर आस्था के कपोलों पर गिरने लगे।
ममा, तुम कहां हो, लौट आओ ममा, लौट आओ।
वह बुदबुदाने लगी।
आस्था को अब होश आ रहा है। सबसे पहले उसकी नजर आप पर पडऩी चाहिये। आस्था ने आंखें खोल दीं और सुधीर को देखकर प्रसन्नता से, उसके गले में बांहें डाल दीं। पापा- मैं अब बोल सकती हूं पापा। हां बेटा, तुम बोल सकती हो। भगवान ने तुम्हारी आवाज वापस लौटा दी है। ममा कहा हैं पापा?
उसने देखा, डॉ. रुपाली अपना बैग उठाये गेट तक पहुंच गई थी। आस्था यंत्रचलित-सी उठी और बाहें पसारकर बरामदे से ही चीखी- ममा, रुक जाओ, रुक जाओ ममा।
रुपाली के पांव, जैसे धरती से चिपक गये। उसने लपककर आस्था को बांहों में भर लिया। आस्था उसके पांव से लिपटकर रोने लगी।
ममा, तुम हमें छोड़कर मत जाओ ममा। इस घर में, जैसा तुम चाहोगी, सब कुछ वैसा ही होगा। मैं, बरामदे वाले कमरे में रह लूंगी। ममा, मेरी ओर नहीं तो पापा की ओर देखो, जिनकी जिन्दगी का एक-एक पल, तुम्हारी याद में दीये की तरह जल रहा है। अगर तुम रुक नहीं सकती तो हम दोनों को जहर दे दो मां, जहर ही दे दो। हम, अब और जीना नहीं चाहते।
रुपाली की अब तक की यत्नपूर्वक रोकी गई हिचकियां सवेग बाहर निकलने लगीं।
आस्था, मेरा जीवन धन, इन गुजरे हुये बरसों में, मैंने जो यंत्रणा सही है, ईश्वर न करे, किसी और को सहना पड़े। मैं कस्तूरी मृग-सी, पागलों की तरह खुशी की तलाश में यहां-वहां भटकती रही, जबकि खुशी मेरे घर में ही मौजूद थी। मैं कितनी बार अपने रास्ते से गिरी, कोई नहीं जानता। तुम्हारे पापा देवता हैं बेटा, मैं उनके लायक नहीं हूं।
ममा, तुम पापा के लायक हो या नहीं, मैं नहीं जानती, किन्तु इतना अवश्य जानती हूं कि मां, हर हाल में मां होती है। तुम मुझे मेरी ममा लौटा दो। मेरा बचपन लौटा दो। मैं तुमसे भीख मांगती हूं।
आस्था, रुपाली के पांव पर झुक गई। रुपाली ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया, फिर वह चलकर धीरे-धीरे सुधीर के पास पहुंची और उसके पांव में अपना मत्था टेकती हुई बोली- मैं जानती हूं, तुम राम हो, लेकिन मैं सीता नहीं हूं। अहिल्या से भी बदतर हूं किन्तु तुम्हारे चरणों में बैठकर, अपने कर्मों का, जरा भी प्रायश्चित कर सकी तो अपने आपको धन्य समझूंगी।
सहसा, फोन की घण्टी बज उठी। सुधीर ने फोन उठाया। दूसरी ओर से मि. मेहरोत्रा बोल रहे थे। रुपाली ने झपटकर रिसीवर अपने हाथ में लिया और बोली-
मि. मेहरोत्रा मैं डॉ. रुपाली नहीं आशा बोल रही हूं। डॉ. आशा सुधीर। हमारी बच्ची की आवाज, वापस लौट आई है। आज आपने, मुझे जो तोहफा दिया है, मैं आपका यह उपकार, जीवन भर नहीं भूल सकती। किसी दिन, आप हमारे घर, चाय पर अवश्य आइये।
आनन्द बिल्थरे – विभूति फीचर्स

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