-‘मम्मी मैं होस्टल में नहीं जाऊंगी……नहीं जाऊंगी….नहीं जाऊंगी’ अनु ने जिद करते हुए कहा।
-‘प्लीज अनु समझने की कोशिश करो बेटी’ मैंने उसे समझाते हुए कहा।
-‘कहा ना- नहीं-याने नहीं’ उसने ऊंचे स्वर में कहा।
मैंने जोर से उसके गाल पर एक चांटा जड़ दिया, उसकी तरफ देखा तक नहीं और किचन में जा कर काम करने लगी। किचन में बर्तनों को धोने का इतना शोर किया कि अनु के रोने की आवाज उसी में दब कर रह गई थी।
मैं एक-एक बर्तन पर अपना गुस्सा उतार रही थी। अनु जानती थी कि-मम्मी जब भी गुस्सा होती है तो किचन में बर्तनों की खैर नहीं रहती। मैं और कर भी क्या सकती थी?
मेरा और तपन का प्रेम विवाह हुआ था। हम दोनों के मध्य धर्म या पूजा कभी बाधा नहीं बने। तपन एक सुलझे हुए व्यक्ति थे। अखबार में साहित्य का पृष्ठ देखते थे- इसलिये उनकी बातचीत, बोलने का अंदाज सब साहित्यिक शब्दों से भरे होते थे।
कॉलेज के एक कार्यक्रम में तपन को बुलवाया गया था। उनके भाषण देने के अंदाज से मैं इतना प्रभावित हुई कि हम दोनों की अक्सर भेंट होने लगी। ये भेंट कब प्रेम में बदल गई- मैं जान ही नहीं पाई।
कैसे सुन्दर सुनहरे दिन थे-प्रत्येक क्षण उसी की स्मृतियां मुझे घेरे रहती थीं। एक भेंट में उन्होंने मुझसे कह दिया कि-‘आरती, तुम से विवाह करना है।’
मैंने लजा कर नेत्र नीचे कर लिए। उन्होंने पुन:कहा-‘नौकरी तुम करती रहना चाहती हो तो अवश्य करो-हम दोनों कभी एक दूसरे पर तानाशाह जैसा शासन नहीं करेंगे।’
मैं कुछ नहीं बोली, तो उन्होंने पुन: कहा-‘क्या तुम्हें मेरा प्रस्ताव ठीक नहीं लगा?’ मैंने कुछ कहा नहीं और धीमे से अपनी नजरें ऊंची करके कहा-‘तपन तुम मेरे जीवन की प्रथम और अंतिम खोज हो जो पूरी हो गई।’
तपन ने बड़ी कोमलता से मेरे गालों को छुआ-मैं गुलाल की तरह गुलाबी हो गई थी। विवाह होने के बाद मुझे प्रतीत हुआ कि हम दोनों का निर्णय एकदम सही था।
मैं कॉलेज में प्रोफेसर थी और वह अखबार में संपादक बन गए थे।
पांच-छह माह बाद ही उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। मैंने उन्हें दिलासा देते हुए कहा-‘तुम चिंता मत करो मैं तो कमा रही हूं।’
एक माह पश्चात ही एक दूसरे दैनिक में वह सम्पादक हो गए। काम का दबाव, समाचार पत्र को श्रेष्ठ बनाने की फिक्र-परेशानी, झल्लाहट धीमे धीमे व्यवहार में प्रगट होने लगी थी। उनका नाम धीमे धीमे फैल रहा था। यश के साथ-साथ घर में परेशानियां, प्रेम का अभाव भी प्रवेश कर रहा था। मैं गर्भवती थी, लेकिन हम दोनों ऐसा एकान्त क्षण नहीं पा रहे थे जब मन की यह बात उन्हें कह सकूं।
जब यह बात मैंने उन्हें बताई तो एक क्षण के लिए खुशियों के असंख्य दीप उनके चेहरे पर जलते दिखे, तुरंत तपन ने कहा-‘आरती एक विशेषांक निकालना है- प्लीज मुझे जाना है, तुम डाक्टर से चेकअप कराते रहना।’ कहकर तपन निकल गये।
मैं उन्हें जाते देखकर वहीं थप्प से बैठ गई। बहुत इच्छा हुई कि जोरों से रो लूं, किंतु जानती थी कि स्वयं को ही स्वयं के आंसू पोंछना होंगे। मैंने एक शब्द भी नहीं कहा और अपने काम में लग गई।
जब अनु अस्पताल में मेरी गोद में आई तब तपन बहुत थोड़े समय के लिए मुझसे मिलने आ पाये। उनकी व्यस्तता चेहरे पर प्रगट हो रही थी। आधे घंटे के अल्प समय में ही छह आठ बार मोबाइल की घंटी बज गई थी। मैंने कहा भी कि-‘मोबाइल ऑफ कर दो’ लेकिन उन्होंने नहीं सुना।
अनु को लेकर मैं ही अकेली अस्पताल से आई। हां तपन ने कार अवश्य भेज दी थी। एक आया रख ली थी जो अनु की देखभाल कर लेती थी। तीन माह की छुट्टियों के बाद मैं कॉलेज जाने लगी थी। अनु धीमे धीमे आया की गोद में बड़ी होने लगी थी। मैं और तपन दोनों ही छत के नीचे अपरिचित जैसे मिलते थे। कम बातचीत होती थी। प्रेम रूप बदल कर घुटन और झल्लाहट में तब्दील हो गया था।
कभी कभी विचार करती कि-मैं बदल गईं हूं या तपन में परिवर्तन आ गया है? लेकिन कोई भी उत्तर नहीं खोज पाती थी। सम्भवत: समय यह परिवर्तन सब में कर देता है।
रात को मैं अनु को सीने से चिपका कर सो जाती थी। अनु धीमे-धीमे बढ़ रही थी। वह थोड़ा थोड़ा समझने भी लगी थी।
तपन ने एक अच्छे स्कूल में उसका प्रवेश भी करवा दिया था। आया की देखरेख अभी भी चल रही थी। हम दोनों का विवाहित जीवन शहर की भीड़ भाड़ में जी रहे-भीड़ के हिस्से की तरह चल रहा था। चलते चलते कभी अचानक टकरा कर अलग हो जाते थे। एक शाम मैं गैलरी में बैठी डूबते सूरज को देख रही थी कि एक गाड़ी रूकी उसमें से तपन की मृत देह उतारी गई। हृदयाघात के कारण तपन इस दुनिया से चले गये थे।
मैं समझ सकती थी कि- तपन अधिक काम के दबाव में, अपनी पहचान कायम रखने के दबाव में खत्म हो गये थे। किसी का क्या गया? मैं पूरी दुनिया में अकेली हो गई थी। इन्श्योरेन्स के रूपयों और डेथ सर्टिफिकेट के सब काम मुझे अकेले निपटाने पड़े। अनु को देख-देख कर बस रोने की इच्छा होती थी। पूरे क्लेम इत्यादि निपटा कर मुझे कुछ लाख रू. मिले जिन्हें मैंने फिक्स में जमा करवा दिया ताकि अनु की शिक्षा के काम में आ सके। इसी मध्य मेरी विश्वसनीय आया ने मुझसे छुट्टी ले ली और वह गांव चली गई।
नौकरी….अनु…सूना घर…सब बातों ने मुझे परेशान कर दिया। मेरी सहेली मिसेज खन्ना ने मेरी मदद की और अनु को होस्टल मेें डालने की सलाह दी। अनु होस्टल चली गई तो फिर इतने बड़े घर में मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? सोच कर ही मन घबरा गया था।
मिसेज खन्ना ने कहा-‘प्रत्येक शनिवार को अनु को घर ले आया करो, सोमवार को उसे होस्टल भेज दिया करो।’ मेरा मन नहीं हो रहा था, किंतु विकल्प कुछ और था भी नहीं। परिणाम स्वरूप मैंने अनु को होस्टल में डाल दिया था। अनु काफी रोई थी, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी। अनु को शनिवार को ले आती थी-रविवार को रखकर-सोमवार को कॉलेज जाते समय होस्टल में छोड़ आती थी। मुझे लग रहा था मानों मैं अनु के बचपन को नष्ट कर रही हूं। उसके मौलिक स्वरूप को होस्टल की संस्कृति में ढाल कर एक विकृत रूप दे रही हूं।
एक शनिवार मैं उसे नहीं ला पाई-अगले शनिवार को वह बहुत रोई……नाराज रही, लेकिन उसे जब मालूम पड़ा कि ‘मैं पिछले सप्ताह बीमार थी और अकेले ही अस्पताल गई…..बुखार में अकेले ही घर में पड़ी तपती रही, तो वह जोरों से रो पड़ी और कहने लगी-‘मैं अब होस्टल नहीं जाऊंगी।’
मैंने ऊंच नीच समझाई-और विचार किया कि सोमवार तक वह समझ जायेगी।
आज सोमवार था और मैंने उसे तैयार होने को कहा तो उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि-‘मम्मी मैं होस्टल में नहीं जाऊंगी…..नहीं जाऊंगी…..।’
वह मेरी मजबूरी-परेशानी समझती नहीं है। किशोरावस्था की इस उम्र में किसके भरोसे छोड़ कर उसे जाऊं? इसलिये स्वयं को संयत नहीं कर पाई और चटाक् से उसके गाल पर एक चांटा रसीद कर दिया और किचन में आ गई थी।
किचन का पूरा काम निपट चुका था। मैं पता नहीं क्या-क्या सोचे जा रही थी कि अचानक दरवाजे पर अनु मुझे दिखलाई दी-वह होस्टल जाने के कपड़े पहने हुई थी। हाथ में स्कूल बैग भी लिए हुई थी। किचन के दरवाजे पर खड़े-खड़े उसने कहा-‘मैं समझ सकती हूं-आपके लिये परेशानी का कारण हूं, प्लीज मम्मी मुझे माफ कर दो….चलिये होस्टल….देर हो रही है…..।’
मैं पथराई आंखों से उसके प्रौढ़ हुए व्यक्तित्व को देखती रह गई। न जाने कब और कहां अनु का बचपन खो गया था।
डॉ. गोपाल नारायण आवटे-विभूति फीचर्स