महर्षि वाल्मीकि प्रचेता पुत्रा परम विद्वान तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी थे। उनका आश्रम और गुरूकुल दोनों ही विद्वान ऋषियों और ब्रह्मवेत्ताओं का तीर्थ था।
तमसा का पवित्रा तट और बहेलिये द्वारा निर्दोष्ंा क्रौंच युगल के मिथुन रत रहते नर की हत्या और व्याकुल क्रौंची का करूण क्रंदन महर्षि के हृदय को झकझोर गया! क्रौंची का करुण विरह क्रंदन महर्षि के मुख से विश्व साहित्य की प्रथम काव्य पंक्ति बन गयी।
वियोग ही कविता की भाव-भूमि बनी।
‘वियोगी होगा पहला कवि!
आह से ऊपजा होगा गान!
निकल कर आँखो से चुपचाप बही होगी कविता अनजान!
क्रौंचयुगल की कामक्रीड़ा बहेलिये के लोभ का कारण बनी और उसका शर संधान का क्रूर हिंसात्मक व्यवहार क्रोध और करुणा की भावभूमि बनी।
‘मा निषाद प्रतिष्ठामत्वमगम:शाश्वती समा:।
यत् क्रौंचमिथुनादेकम वधी:काममोहितम।।’
ऋषि स्वयं अपने वाक्यविन्यास पर अचंभित थे। तब नारद जी ने उन्हें इस काव्यात्मक वाणी का रहस्य समझाया और सर्वगुण सम्पन्न धीरोदात्त सुंदरतम मनस्वी यशस्वी अविजित वीर। धर्माचरण मे अन्यतम। नायक को लेकर काव्य रचना करने को कहा।
वाल्मीकि जी के कहने पर नारद जी ने रघुवंशमणिभूषण श्रीराम का चरित्रा गायन का ब्रह्मा का संदेश बताया।और आज वाल्मीकी रामायण केवल काव्य मात्रा नहीं, इतिहास भी है।
उस समय के भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, ज्योतिषीय खगोलिक और आयुर्वेदिक जानकारियों का विज्ञान से प्रमाणित दस्तावेज है।
महर्षि का हर क्षेत्र का ज्ञान प्रमाणित ह। श्रीराम जन्म के ग्रह नक्षत्रों की गणना का खगोलीय परीक्षण किया गया।और महर्षि के द्वारा उल्लिखित सभी ग्रह नक्षत्रा उन्ही अंशों राशियों में थे जैसा महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है।
यही नहीं अयोध्या से लेकर चित्राकूट ‘दण्डकारण्य’ श्रीलंका तक और अन्य स्थानों के भौगोलिक वर्णन, वहां के निवासियों का रहन सहन आदि का सटीक चित्राण महर्षि वाल्मीकि ने किया है। उसके प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। श्रीरामसेतु का भी बनने से लेकर बनानेवालों का उल्लेख वाल्मीकि रामायण मे है और उसकी पुष्टि भी होती है।इसी तरह कई प्रकार की औषधियों का विवरण मिलता है।
इस तरह वाल्मीकि रामायण फिक्शन नहीं, ऐतिहासिक दस्तावेज है पर इसमें कुछ क्षेपक भी हैं जो बाद मे समय समय पर जोड़े गये थे।
हमारी ऋषि-परंपरा केवल मनीषी तपस्वी और योगियों की ही नहीं है बल्कि भौतिक विज्ञानियों खगोलविदों और ब्रह्मविदों की थी जिन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अणु परमाणु और अनुशासन का पूरा ज्ञान था जो हमे आज तक चमत्कृत कर देता है।
अब इस महान महर्षि से कब डाकू रत्नाकर की कथा जुड़ी, इसका शोध होना चाहिये।
वाल्मीकि के विषय में तुलसीदास का कथन कि
‘उलटा नाम जपत जगु जाना
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।’
यह राम नाम की महिमा के संबंध में कहा गया है पर इस विषय में मेरी एक विनम्र धारणा है कि नामजप हो या मंत्र जप, उसे अनुलोम विलोम जपने से उसमे शीघ्र लाभ होता है।प्रचेता का समय सृष्टि के आरम्भकाल का है।तब तक मैथुनी सृष्टि का प्रारंभिक चरण था। वाल्मीकि ऋषि ब्रह्मज्ञानी थे। वे समय चक्र की आगे और पीछे की घटना देखने मे समर्थ थे।
उनकी करुणा, सहजता पर दु:खकातरता उनके काव्य मे सर्वत्रा व्याप्त है। उनकी महाराज जनक से मैत्राी थी।
अत: जनकनंदिनी सीता के वनवास मे उनके आश्रम में रहने को समझा जा सकता है। लव कुश के समस्त संस्कार और शिक्षा दीक्षा महर्षि की देख रेख मे ही सम्पन्न हुई और लव को अद्भूत शस्त्र शिक्षा का लोहा श्रीराम को भी मानना पड़ा।
सीता की पवित्राता का समर्थन करते महर्षि वाल्मीकि के उद्गार हमारी ऋषि परम्परा का सुनहरी स्मृत्याक्षर हैं। करुणा वेदना नारी की शाश्वत गरिमा का आलेख है।वाल्मीकि शरद पूर्णिमा को प्रकट शरदचंद्र के अमृत घट हैं जिसमे रामनाम का अमृत रस भरा है।
फिर चाहे श्रीराम के आवास बतानेवाली चौपाइयां हो या श्रीरामकथा के आदि गायक की करुणा का ही महासाक्षात्कार का साकार विग्रह श्रीराम।
सतीत्व शालीनता और साहस की प्रतिमा माता सीता। वाल्मीकि ऋषि मे सीताराम दोनो करुणावतार बन समाहित हैं।
महर्षि वाल्मीकि जी के रत्नाकर डाकू होने की कहानी यह क्षेपक है जो बाद में जोड़ा गया है। सीता माता और उनकी संतानों को दीक्षित रक्षित करके सर्व गुण संपन्न बनाने वाला क्या कभी ऐसा अधम काम कर सकता था?
– शिवानंद मिश्रा