किसी भी मनुष्य के जीवन में सम्बन्धों का, रिश्तों का पूरा कारवां साथ चलता है। माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, संतान के अतिरिक्त बहुत से अन्य सम्बन्ध भी होते हैं, जिनमें मित्र सहयोगी, परिचित भी सम्मिलित होते जाते हैं। इन सम्बन्धों पर मनुष्य का विश्वास टिका होता है। इन सम्बन्धों में प्रेम का तत्व भी होता है, अपेक्षाएं भी होती हैं। अपेक्षाएं पूर्ण न हो तो यही सम्बन्ध जिन्हें प्रेमपूर्वक सहेजा और संवारा गया होता है, शूल बनकर कष्ट देते हैं।
यह आवश्यक नहीं कि जिससे प्रेम किया जा रहा है, उससे प्रेम ही प्राप्त हो। जिस सम्बन्ध पर हम गर्व कर रहे होते हैं, कई बार वही सम्बन्ध उपेक्षा और अपमान का कारण बन जाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात सम्बन्धों का अस्थायी होना। मानव जीवन ही क्षण भंगुर है। सभी के सिर पर काल मंडरा रहा है। कब किसे काल ग्रस ले कहना कठिन है। इसीलिए सम्बन्ध भी चिरंजीवी नहीं हैं। इसके बावजूद मनुष्य सम्बन्धों के भ्रम जाल में घिरा रहता है। उनसे ऊपर उठ ही नहीं पाता। सम्बन्ध उसे सुख भी देते हैं और दुख भी, फिर भी वह इन पर विश्वास टिकाए रखना चाहता है। यह भ्रम जाल मानव जीवन के रूप में मिले मोक्ष प्राप्ति के सुअवसर को गंवा देने पर विवश कर देता है।
संसार में रहना है तो सम्बन्ध तो बनाने पड़ेंगे। चाहेंगे तब भी और नाचाहेंगे तब भी। बस इनमें डूब जाना नहीं। सम्बन्ध किसी प्रकार के क्यों न हो अपेक्षाएं किसी स्तर पर नहीं करनी। यदि अपेक्षाएं रहेंगी तो दुख के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं होगा।