जैसे लकड़ी की संगति से लोहा तर जाता है, चन्दन के वृक्ष के समीप दूसरे वृक्षों में भी चन्दन के समान सुगंधि आने लगती है, पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, उसी प्रकार सत्संगति पाकर तुच्छ निर्बल अज्ञानी और पापी जीव भी हर प्रकार की मलिनता से मुक्त होकर परमेश्वर रूपी सत्य में समाकर स्वयं भी सत्य का ही रूप हो जाता है।
जैसे बाड नये अंकुरित पौधों को जानवरों से बचाती है और तैयार फसल की भी रक्षा करती है। ऐसे ही सत्संग की बाड हर आयु वर्ग के मनुष्य को विषय विकारों और बुरे कर्मों से बचाती है। मनीषियों का कहना है कि यदि हम सत्संग में पहुंचकर अधिक उन्नति नहीं कर सकते तो भी अनेक पापों और अपराधों से बचे रहते हैं।
पानी में पड़ा पत्थर यदि पानी में घुलता नहीं कम से कम सूर्य की तपिश से तो बचा रह सकता है। अंधा बाग में जाकर यदि फूलों की सुन्दरता निहार नहीं सकता, परन्तु उनकी सुगन्धि तो प्राप्त कर ही सकता है। वास्तव में जब मनुष्य प्रेम भाव से निरन्तर सत्संग में जुड़े रहते हैं तो शनै-शनै मन की अवस्था अवश्य बदलती है।
कुटिल व्यक्ति भी यदि निरन्तर सत्संग में जाता रहेगा तो वह भी धीरे-धीरे निर्विकार होकर श्रेष्ठ व्यक्ति बन जायेगा। किसी कवि ने सत्य कहा है ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ अर्थात अच्छे कार्य के अभ्यास से जड़बुद्धि व्यक्ति भी चतुर बन सकता है।