मानव जीवन की सफलता परमात्मा की प्राप्ति में है, परन्तु उसे पाना बहुत सरल नहीं है। प्रभु के साक्षात्कार के लिए दिव्य चक्षु चाहिए, जिसे केवल श्रद्धामय भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। श्रद्धा से तात्पर्य है अविश्वास की समाप्ति, जहां अविश्वास समाप्त हो जाता है, वहां भक्ति का प्रारम्भ हो जाता है।
परमपिता परमात्मा का तेजोमय स्वरूप जो हमारे भीतर विराजमान है, उसमें श्रद्धा को जोडऩे का नाम ही भक्ति है। परमात्मा की भक्ति रूपी मणि का वास मनुष्य के हृदय में है। मनुष्य जब तक बुद्धि प्रधान बना रहता है, तब तक भक्ति बाहरी दिखावे में ही सिमट कर रह जाती है।
बुद्धि अपने स्वभाव के अनुसार तर्क करती है, तोड़ती है, जबकि हृदय जोड़ता है, वह केवल प्यार करता है। जहां प्यार होगा, वहां तर्क नहीं होगा, वहां केवल श्रद्धा होती है। श्रद्धा को बाहरी दिखावे की आवश्यकता नहीं है, जो है वह है। भक्ति जब परवान चढ़ती है तो भक्त के लिए अपना क्या और पराया क्या।
उसकी दृष्टि में सारा जगत ही उस प्रभु की रचना है, मैं भी और मेरा पडौसी भी। उसके लिए मेरा क्या और उसका क्या। वह जानता है कि मेरे पास जो है, वह सब उस परमात्मा का ही दिया है। मन में जन्मा यह भ्रम कि यह मेरा है, मेरा कमाया है, समाप्त हो जाता है। जब यह विचार दृढ होता जाता है, वह प्रभु का प्यार हो जाता है, उसकी कृपा का पात्र बन जाता है। सही अर्थों में वह प्रभु का भक्त बन जाता है।