Friday, November 22, 2024

अनमोल वचन

कहा जाता है अहिंसा परमोधर्मः अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है। हम अहिंसा को किसी भी परिस्थिति में दूसरों को पीड़ा न पहुंचाने के अर्थ में लेते हैं, किन्तु जो प्राणी दूसरों के प्राणों का हनन कर रहा है, ऐसे प्राणी के प्राण लेना हिंसा नहीं, अहिंसा को पोषित करना है।

अर्थर्ववेद में अहिंसा और हिंसा के भेद को समझाते हुए कहा गया है ‘परेणेतु पृथा वृकः परमेणोत तस्करः। परेण दत्वती रज्जू परेणाधायुरर्षतु’ – अरे भेड़िये मुझसे दूर रहना, अरे चोर मुझसे दूर रहना, ओ सांप मुझसे दूर रहना, ओ पापी मुझसे दूर रहना। सावधान, क्यों मेरे पास आकर अपने जीवन से हाथ धोना चाहते हो।

अथर्ववेद के एक अन्य मंत्र है – ‘सनादग्ने मृणासि यातु धानान न त्वारक्षासि पृतनासु जिग्यु। सहभूराननु दह क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत देव्याया।।’ अर्थात सदा हे वीर तू राक्षसों का संहार करता आया है। राक्षस तुझे युद्धों में जीत नहीं सके। अपनी इस परम्परा को स्थिर रख। उन मार-काट मचाने वाले मांसभक्षी राक्षसों को भस्म कर दे। वे तेरी चमचमाती तलवार से बचने न पाये।

इन पवित्र मंत्रों में हिंसा का आदेश है, परन्तु यह हिंसा, हिंसा की संज्ञा में न होकर अहिंसा मानी जायेगी।

मनुष्य को यह चोला आत्म कल्याण और दूसरों का हित करने के लिए मिला है। यदि इससे दूसरे की अथवा अपनी हानि करने के लिए प्रयोग किया जाने लगे तो ऐसे व्यक्ति का भला इसी में है कि वह चोला उससे छीन लिया जाये। यह हिंसा नहीं वरन हिंसा का अन्त करना है, परन्तु यह सारा कार्य राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, भय, ईर्ष्या आदि वृतियों से उसी प्रकार सर्वथा पृथक होना चाहिए जैसे कि चीर-फाड़ करने वाले शल्य चिकित्सक (सर्जन) का होता है।

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