परमपिता परमात्मा ने स्वस्थ शरीर (कुछ अपवादों को छोड़कर) सभी को दिया है, सभी को बुद्धि दी है, अंग-प्रत्यंग दिये हैं।
मानव में बहुत सी प्रतिभाएं हैं, प्रतिभा सभी में होती है। प्रतिभा कोई पैतृक देन नहीं होती, यह उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होती। किसी विशेष व्यक्ति को परमात्मा की विशेष कृपा भी नहीं, हां पूर्व जन्मों के कर्म फल अनुसार न्यूनाधिक अवश्य होती है।
मनोविज्ञान कहता है कि मानव मस्तिष्क में लगभग तीन सौ प्रकार की कला या प्रतिभा होती है। कितने आश्चर्य, शर्म और दुख की बात है कि इतिहास में थोड़े लोगों को विचित्र और विशेष कार्य कर लोकप्रिय होते देखकर हममे उनके समान कुछ करने के लिए प्रेरणा भी नहीं जागती। मन में एक साधारण सी लहर उठती है कि हम भी ऐसे विख्यात हो, परन्तु कुछ करने को हाथ-पैर नहीं उठते, बोलने को मुंह नहीं खुलता कि हमारे मन में कौन सी कल्पना अथवा योजना भरी हुई है, जिसके क्रियान्वित होने से देश का, समाज का कल्याण होगा, राष्ट्र की समस्याएं सुलझेगी।
जो कारण हमें उन योजनाओं को उद्घाटित करने से रोकते हैं वह शर्म-संकोच के संस्कार हमारे जीवन, समाज, देश और मानवता के लिए घातक हैं। उन क्षुद्र संस्कारों, शर्म, संकोच, संकीर्णता और हीन भावना को देश हित में त्यागना ही होगा। पता नहीं हमारी क्षुद्र सी लगने वाली योजना देश के लिए कितनी उपयोगी सिद्ध हो जाये और हम संकोचवश उसे उद्घाटित न कर पा रहे हों।