यदि हम अपने चारों ओर नजर घुमायें तो ऐसा लगता है जैसे हमारे पास या दूर का संसार केवल और केवल किसी द्वन्द में उलझा हुआ सा है। इस विचार से मन भारी हो जाता है कि मानव की इतनी प्रगति के बावजूद समाज में विरोधाभास, अहसमति, क्लेश, बस यही सब जैसे हाथ लग पाया है।
समाज की इकाई होने के नाते जब बात स्वयं पर आती है तो हम पाते हैं कि हमारे खुद के भीतर अथाह अन्तर्द्वन्द व्याप्त है और वही अन्तर्द्वन्द धीरे-धीरे हमारे चारों ओर के वातावरण को भी लपेट लेता है।
हम अपने को वास्तव में दिन-रात छोटे-बड़े उचित-अनुचित सवालों में घिरा पाते हैं। हमारा प्रत्येक निर्णय, जो किसी दण्ड से कम नहीं, निरन्तर एक अन्तर्द्वन्द से गुजरता है। यह ऊहा-पोह हमारे भीतर का है। ऐसे में निर्णय कुछ भी हो, हार या जीत स्वयं की ही होती है।
हम किसी कठोर निर्णय पर पहुंच भी जाये तो भी अन्तर्द्वन्द की पैंठ इतनी गहरी होती है कि हम जितना आगे बढ़ते जाते हैं वह हमें उतना ही पीछे घसीटती जाती है।
छोटे-छोटे आन्तरिक संघर्षों में घिरे रहना एक प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को जन्म देता है। यही अन्तर्द्वन्द हमारे जीवन के बड़े एवं महत्वपूर्ण फैसलों पर हावी होने लगता है। आज कल लगभग सभी इस ग्रंथि से पीड़ित प्रतीत होते हैं, जिसकी काट तलाशना बेहद आवश्यक हो गया है।