प्रार्थना, पूजा, आराधना, इबादत उसी की सार्थक है, जो आत्मा को परमात्मा में लीन करने को व्याकुल है, जो प्रभु को जीवन के हर कण-कण में समा लेने के लिए व्यग्र है, उसी का होकर जीना चाहता है, ऐसे आराधक को ही सच्चा भक्त कहना चाहिए। दूसरे तो विदूषक ही है जो कुछ प्रयास करने से पूर्व ही यह मान बैठे हो कि ईश्वर तो हमसे रूठा है, रूठा हुआ है।
अरे भाई ईश्वर किसी से भी क्यों रूठेगा? वह किसी से भी रूठा हुआ नहीं है, जो उसे मनाने की मनुहार करनी पड़े। रूठा तो अपना ही कुटिल स्वाभाव है, अपने अशुभ कर्म है, उन्हीं को मनाना चाहिए। अशुभ कर्मों का त्याग कर शुभ कर्म करने चाहिए।
अपने आपसे अपने मन से प्रार्थना करे कि वह कुटिलता छोड़े, सन्मार्ग पर चले, मन को यदि मना लिया, आत्मा का उत्थान कर लिया तो समझो कि ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई, उसकी कृपा प्राप्त हो गई।
कुछ पाने के लिए प्रभु से की गई प्रार्थना, पूजा, आराधना, प्रभु प्रेम का उपहास है। कुछ मांगना है तो सद्बुद्धि मांगों और कुछ करना है तो प्रभु को समर्पण करे, क्योंकि प्रभु भक्ति में तो आत्म समर्पण के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। भक्ति और स्वार्थपरता दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।