जो व्यक्ति धन के प्रति आसक्त नहीं वह महान सम्पदाओं का स्वामी है। धन के प्रति निर्मोही होना ही अपने आप में बहुत बड़ी सम्पदा है। त्याग और समर्पण का भाव जीवन की असली धरोहर है। व्यक्ति ऐसी सम्पदा को पाने का प्रयत्न क्यों नहीं करता? क्योंकि मन में पवित्रता नहीं।
मन की पवित्रता के अभाव में इस महान सम्पदा को पाने का प्रयास नहीं करता। अपवित्र मन तो अपवित्र वस्तुओं की ही कामना करेगा, अग्रह्य पदार्थ वासना ही रखेगा। दृष्टिकोण में परिवर्तन लाकर तो देखिए सब बदल जायेगा। दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए पदार्थ में आसक्ति का भाव त्याग दें।
धन को साध्य नहीं केवल साधन माने। दूसरों के सुख-साधना तथा सम्पदा देखकर ईर्ष्या न करें। ‘आपके पास भी वही सब कुछ होना चाहिए, जो उनके पास है’ ऐसी प्रतिस्पर्धा आपको कुमार्ग पर डाल देगी। आपका चिंतन इस प्रकार का होना चाहिए, जिससे निरासक्ति का भाव बना रहे कि ‘दूसरों को सोने-चांदी के टुकड़ों पर मरने दो मैं तो बिना धन के ही अमीर हूं, क्योंकि नेकी और ईमानदारी से थोड़ा सा धन मैं कमाता हूं यह थोडा सा धन ही मुझे बड़े-बड़े करोड़पतियों से भी अधिक आनन्द देता है।’ निरासक्ति का भाव बनाये रखने के लिए केवल ऐसे विचारों को पुष्ट करें।