सामाजिक ताने-बाने में प्रभु राम इस प्रकार रचे-बसे हैं कि उन्हें जब हम नियमित सोच रहे होते हैं, तब तो उनकी अमृतमयी छवि हमारे अन्तर्मन में उभरती ही है, परन्तु दिन भर में हम बहुत बार उन्हें बिना उनकी छवि निहारे भी स्मरण करते रहते हैं। किसी मूर्त रूप के इस प्रकार अदृश्य होकर हमारे सामाजिक जीवन में घुल मिल जाने का कोई और दूसरा अप्रतिम उदाहरण नहीं मिलता।
राम हमारे जन्म से लेकर दैनांदिन क्रिया-कलापों तक और फिर मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों तक में अनिवार्य रूप से समाये हुए हैं।
भारत की आत्मा ग्रामीण जीवन में बसती है। हम सबके पुरखे गांवों में ही रहते थे, अब भी रहते हैं। गांवों में आज भी परम्परा है कि भले ही आप किसी राहगीर से परिचित भले न हो, लेकिन सामने पड़ते ही या तो आपके मुंह से राम-राम निकलता है या फिर वह राहगीर आपको राम-राम कहकर निकलता है। गहराई से सोचे तो आपसी अभिवादन की यह रीति कितनी सकारात्मक और परस्पर जोड़ने वाली है।
केवल हिन्दू समाज ही राम-राम बोलता हो ऐसा नहीं। गांव रहने वाले मुस्लिम अथवा अन्य मतावलम्बी भी आपको राम-राम बोलते या राम-राम का जवाब राम-राम से देते मिल जायेंगे। कारण राम हम सबके पूर्वज हैं, भले ही आज पूजा पद्धति भिन्न-भिन्न हो गई हो।