व्यक्ति में आकांक्षाएं होना स्वाभाविक है। वह व्यक्ति को ऊर्जावान रखती है तथा आशावादी बनाये रखने का प्रमुख ऊर्जा स्रोत भी है, परन्तु अधिकांश व्यक्ति महत्वाकांक्षी होते हैं और इनमें से भी कुछ अतिमहत्वाकांक्षी हो जाते हैं। यही आकर व्यक्ति सन्मार्ग से विचलित हो जाता है और न जाने कौन-कौन से अनैतिक कर्म करने लगता है।
इसलिए अपनी आकांक्षाओं को सीमाओं में रहने को बाध्य करो अन्यथा अतिमहत्वाकांक्षाएं न जाने आपसे कैसे-कैसे अनैतिक कर्म करा दे। आकांक्षा महत्वाकांक्षा की बड़ी बहन है। आकांक्षा में सहजता का भाव समाहित है, लक्ष्य प्राप्त करने की पावन ऊर्जा है, जिसमें सर्वसमाज का हित निहित है।
आकांक्षा हमारी आत्मा में प्रस्फुटित होती है। आत्मा का स्फुरण सदैव दैवीय माना जाता है। आकांक्षी व्यक्ति असफलता मिलने पर भी निराश नहीं होता। उसे तनाव छू भी नहीं पाता। असफलता की फिसलन उसे सफलता की कठिन ऊंचाईयों को छूने की प्रेरणा देती है।
वह सदैव स्वयं को ऊर्जा से भरा हुआ महसूस करता है। उसे दूसरे व्यक्ति की सफलता भी अपनी सफलता लगती है। हमें महत्वाकांक्षी न बनकर आकांक्षा का पक्ष अंगीकार करना चाहिए, जिसमें स्वहित के साथ-साथ सर्वहित भी निहित है।