वेद का ऋषि कहता है कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है तथा उन कर्मों का फल भोगने में परमात्मा की व्यवस्था के पराधीन है। जीव के अधीन उसका शरीर कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय एवं अन्त:करण आदि है।
शरीर की रचना परमेश्वर द्वारा की गई है। जीव जो मन वचन कर्म द्वारा पाप पुण्य करता है, वही ईश्वर की व्यवस्था के अधीन उसका फल भी भोगता है अन्य कोई नहीं। ईश्वर ने उसे मानव शरीर देकर कर्म करने की स्वतंत्रता तो दी है, परन्तु उन कर्मों का फल वह अपनी व्यवस्था के अनुसार जीव को देता है। जैसे किसी खनिजकर्ता ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को व्यापारी ने लिया।
उसकी दुकान से लोहार ने लेकर तलवार बनाई। उस तलवार को लोहार से किसी व्यक्ति ने खरीदकर किसी व्यक्ति की हत्या कर दी। अब इस प्रकरण में लोहे को खोजने, उससे लेने तलवार बनाने वाले और तलवार को पकडकर शासन दण्ड नहीं देता, किन्तु जिसने उस तलवार से किसी आदमी की हत्या की वही पकड़ा जायेगा और दण्ड का भागी होगा।
इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर उसके कर्मों का भोक्ता नहीं होता, परन्तु जीव को भोगाने वाला होता है। यदि परमेश्वर कर्म कराता तो कोई जीव पाप न करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने की प्रेरणा नहीं देता।