जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर जब कोई इंसान संतुष्ट हो जाये और फिर अपना कुछ समय तथा ऊर्जा समाज सेवा एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए लगाये तो उसे ही जीवन की सच्ची सफलता और सार्थकता माना जाता है।
संतोष एक बहुत बड़ी शक्ति है। संतोष या संतुष्टता मानव को निष्क्रिय नहीं अपितु क्रियाशील, सृजनशील, सकारात्मक, आशावादी, अच्छाई और सबकी भलाई के लिए उमंग, उत्साह, साहस, आत्मविश्वास और मनोबल के साथ आगे बढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित करती है।
संतुष्ट व्यक्ति शांत, शीतल, संतुलित, सहनशील, धैर्यवान, लचीला और मिलनसार होता है। सभी मानसिक द्वन्द्वों और प्रश्रों से परे प्रसन्न रहता है। कार्य क्षेत्र में कर्म योगी बन हर कार्य में सफल, संतुष्ट और स्थितप्रज्ञ रहता है।
संतुष्टता को बढ़ाने के लिए अन्तरात्मा में निहित सातो गुणों के बारे में नियमित मनन चिंतन एवं अनुभूति जरूरी है। ये मनुष्य को परमात्मा से जोड़े रखने में भी सहायक होते हैं।