दान करना एक पवित्र और अनिवार्य कत्र्तव्य है। शास्त्रों का वचन है कि अपनी शुद्ध कमाई का दशमांश दान अवश्य करना चाहिए। दान में दो चीजें विचारणीय हैं। प्रथम तो दान का धन आपके परिश्रम और ईमानदारी की कमाई का होना चाहिए। यदि दान किया जाने वाला धन बेईमानी से कमाया गया है, किसी का हक मारकर कमाया गया है तो ऐसा दान निष्फल जायेगा। यदि हम किसी ओर के हक की कमाई को छल-कपट से अपने नाम कर लेते हैं तो सोचिए क्या वह धन आपका है, यह तो दूसरे के नाम के धन और सम्पदा को हम पाप मार्ग से अपने नाम कर रहे हैं, उसका श्रेय उसके वास्तविक अधिकारी को मिले न मिले आपको तो मिलने वाला है नहीं है। झूठे श्रेय की प्राप्ति का पाप आपको अवश्य मिल जायेगा। दान वह करो जिसमें सब कुछ आपका हो-परिश्रम, कर्म, अच्छी नीयत और पवित्रता के दस रूपये का दान दस लाख रूपये के दान से बढ़कर आनन्ददायी और शान्ति प्रदान करने वाला है। दूसरे जिसे दान दिया जा रहा है उसकी पात्रता की परख अवश्य कर लेनी चाहिए, क्योंकि कुपात्र को दान देना पुण्य नहीं पाप है। सुपात्र दान का दुरूपयोग नहीं करेगा और कुपात्र कभी सदुपयोग नहीं करेगा। इसलिए आत्मचिंतन करे कि आपका दान किस श्रेणी में आता है।