आज हिन्दी दिवस है। आश्चर्य तो यही है कि हम भारत में जो हिन्दी की मातृभूमि है, जन्मभूमि है, वहां हिन्दी दिवस मनाया जाता है। केवल एक दिन हिन्दी के लिए एक बार फिर विरूदावलिया गाई जायेंगी। एक बार फिर हिन्दी की प्रशस्ति में गीत गाये जायेंगे, तोरण द्वारा बनाये जायेंगे, हिन्दी को देश के माथे की बिन्दी बताने वाले स्वर चारों दिशाओं में गूंजेंगे पर सच्चाई यही है कि हम हिन्दी वाले स्वयं ही अपनी मातृ भाषा की महानता का आदर नहीं करते। हम कभी विचार ही नहीं करते कि हमारी भाषा विश्व की अन्य सभी भाषाओं से समृद्ध है। गुलामी की ग्रंथियां हम भारतियों में और मुख्यत: हिन्दी प्रदेशों में इतने गहरे बैठी है कि हम केवल अंग्रेजी भाषा और सोच संस्कार ही नहीं बल्कि अंग्रेजी चाल-चलन, हाव-भाव, कहावतें, मुहावरें की भी हुबहु नकल करने की चेष्टा करते हैं। नव धनाढ्यों के लाड़ले, लाड़लियां हिन्दी भी कुछ इस अंदाज, लहजे और मुद्राओं, भंगिमाओं में बोलते है जैसे वे हिन्दी बोल कर उस पर कोई उपकार कर रहे हो। सच यह है कि प्रत्येक भाषा भाषी अपनी ही भाषा में सही बोल सकता है। सही सोच सकता है, सोच के अभाव में तो अभिव्यक्ति अपरिपक्त ही रहेगी। अपनी भाषा की यदि उपेक्षा की गई तो मौलिक चिंतन, मौलिक शोध और मौलिक व्यक्तित्व का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।