क्या ही अच्छा हो यदि श्मशानी वैराग्य हमारे भीतर सदैव बना रहे। आपने देखा होगा किसी का देहान्त हो जाने पर उसकी अर्थी के पीछे श्मशान तक चलने वाले अनेक लोग वैराग्यपूर्ण बातें करते हैं। जगत के इस मिथ्यात्व को देखकर कुछ अचंभित होते हैं और यह कहते देखे जाते हैं-क्या है जी दुनिया, क्या पता कब यह शरीररूपी गुब्बारा फूट जाये। इसका भला भरोसा भी क्या? दुनिया मन में बसाने योग्य नहीं, आदि-आदि परन्तु यह वैराग्य तब तक ही है, जब तक मुर्दा जलाकर वापिस नहीं आ जाते और कुछ तो ऐसे भी देखे जाते हैं, जो वहीं शमशान में ही मोबाइल पर व्यापार की बातें कर रहे होते हैं। राम नाम सत है-ये शब्द तो वे बहुत मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी ढंग से कहते जायेंगे मानो वह स्वर उनके अन्तरम से फूट रहा हो, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। उनका यह वैराग्य श्मशानी वैराग्य होता है, मात्र दूध का उफान होता है, जो सांसारिक बातों, घातों एवं धंधों रूपी पानी के थोड़े से छींटे पडऩे पर ही नीचे बैठ जाता है। राम नाम सत है तभी तक है जब तक शमशान से आये नहीं। वहां से आते ही पुन: वही उलझनें, वही झंझट, वही लेन-देन, वही राग द्वेष पूर्ण बातें, वही मिथ्या व्यवहार क्या यह सत्य नहीं?