मनुष्य में दो गुण परम कल्याणकारी माने गये है। श्रद्धा और संतोष। श्रद्धा और विश्वास तो एक दूसरे के पूरक हैं। उनकी दृढता ही परमात्मा के अस्तित्व का बोध कराती है। श्रद्धा होगी तो विश्वास जागेगा। विश्वास जागेगा तो श्रद्धा मजबूत होगी, किन्तु श्रद्धा के साथ संतोष हो तो उनके सहारे जीवन के हर संग्राम को जीता जा सकता है।
यदि इन दोनों गुणों को अपना लिया जाये तो हिंसा तथा घृणा की विकृति समाज में पैदा ही नहीं होगी। सभी शान्ति से जीवन व्यतीत करेंगे। श्रद्धा से विश्वास की दृढता बढती है और विश्वास से लक्ष्य की प्राप्ति होती है। संतोष मनुष्य को धैर्यवान बनाता है। धैर्य धारण करने से अन्य कोई बड़ा योग नहीं है।
विषमतम समस्याओं का समाधान धैर्यपूर्वक आचरण और मनन से सम्भव है। धैर्य ही प्रकटत: संतोष है, जो सभी के लिए एक मंत्रवत है। सभी सिद्धियां श्रद्धा और संतोष से प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति में ये गुण नहीं तो कोई भी आशा पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए ऋषि, मुनि, विद्वान, मनीषी श्रद्धा और संतोष का पाठ पढाते रहे हैं।