ईश्वर की प्राप्ति किसी ज्ञान-विज्ञान से नहीं होती। ईश्वर तो किसी अशिक्षित को भी सहज प्राप्त हो जाता है। उसे लिए व्यवहारिक धर्म की विद्या चाहिए, क्योंकि व्यवहारिक धर्म ही वास्तविक धर्म है, परन्तु व्यवहारिक धर्म है क्या? प्रत्येक जीव के सुख-दुख में अपना सुख-दुख अनुभव करना और निरन्तर सेवाभाव से रहना ही व्यवहारिक धर्म है। इसलिए जीवन का प्रत्येक क्षण जीव सेवा में लगाना चाहिए। आप जैसा व्यवहार अपने लिए पसन्द करते हो निश्चित ही वैसे ही व्यवहार की अपेक्षा दूसरे आपसे करते हैं। लोक व्यवहार का यही मापदण्ड है। यदि आप ऐसा ही करेंगे तो प्रभु को नि:संकोच भाव से कह सकेंगे कि हे ईश्वर मैं तेरे निकट हूं, क्योंकि मैं तेरे उस रूप की सेवा कर रहा हूं, जो निर्बल, निर्धन और असहाय है, परन्तु उनमें निहित ब्रह्म तत्व कभी न तो निर्बल होता है और न ही असहाय। मैं सुप्त ब्रह्मतत्व को जागृत कर निर्बल को सबल बनाने का कार्य कर रहा हूं। मेरा कर्तव्य उनका दुख दूर करना था। अपना कर्तव्य पूरा करते हुए मैंने यह नहीं सोचा कि उनका व्यवहार मेरे प्रति कैसा होगा। मुझे तो केवल अपने कर्म से सरोकार रहा है। दूसरों के कर्म, स्वभाव से नहीं। यही तो भारतीय चिन्तन धारा की मानवतावादी सोच है।