जो फल जप, तप, पूजा-पाठ आदि से अनेक वर्षों में प्राप्त होता है वह अल्पकाल के सत्संग से प्राप्त हो जाता है। यदि सुमार्ग पूर्व की ओर है और हम जा रहे हैं पश्चिम की ओर तो हम जितना चलते हैं, उतना मंजिल से दूर होते जाते हैं। इसी प्रकार मनोनुकूल यत्नों के द्वारा प्रभु प्राप्ति के लिए जितना परिश्रम करते हैं, प्रभु से उतना ही दूर होते जाते हैं।
सत्संग से प्रभु प्राप्ति के सच्चे साधन और सच्चे मार्ग का ज्ञान मिलता है और सत्संग का अच्छा वातावरण भजन सुमिरन और परमार्थ में उन्नति के लिए सहायक सिद्ध होता है। चंदन की संगति में रहने वाला गुणहीन साधारण वृक्ष भी चंदन की भांति सुगन्धित हो जाता है।
सत्संग को पारस कहा गया है, जिसमें जीव लोहे से सोना नहीं पारस ही बन जाता है। कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे गंगा में गिरी नदी बिना यत्न के गंगा बन जाती है, पारस के स्पर्ष से लोहा बिना यत्न के कंचन बन जाता है। इसी प्रकार सच्चे संतों की संगति में पहुंचकर जीव सहज रूप से संत गति प्राप्त कर लेता है।
किसी कवि ने सत्संग की महिमा इस प्रकार बखान की है… “तप के बरस हजार हो, सत संगति घड़ी एक, तो भी सरवारि ना करे शुकदेव किया विवेक।”