वेद की शिक्षा है कि लक्ष्मी की तीन गति है दान, भोग, नाश, यदि आप दान नहीं करते, सही कार्यों में भोग नहीं करते, संग्रह करने में ही लगे हुए हैं तो वह धन नाश को प्राप्त होना ही है, परन्तु अपनी आवश्यकताओं से अधिक धन पदार्थों के नष्ट हो जाने को आप प्रभु की कृपा ही माने। यह अतिश्योक्ति नहीं है। कई विद्वान, मनीषी, महापुरूषों ने भी ऐसा ही कहा है कि उसका नष्ट हो जाना भगवान की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा। यह निश्चित है और इस बात को जानते भी सभी हैं कि इन्हें कभी न कभी तो छोडऩा ही पड़ेगा। आज नहीं तो कल जब मृत्यु आपको अपनी गोद में बैठा लेगी तो यह सब स्वत: ही छूट जायेंगे। संसारी लोग भौतिक पदार्थों को महत्वपूर्ण मानते हैं, परन्तु भक्तों और जिन्हें वैराग्य हो गया है उनके लिए इन पदार्थों और मायावी वस्तुओं का कोई विकल्प है ही नहीं। संसारी और भक्त के मध्य यह अंतर केवल दृष्टिकोण अथवा विचार धारा का है। भक्त को धन या पदार्थ में कोई आसक्ति होती ही नहीं। वे तो एक मात्र प्रभु का प्यार और प्रसन्नता चाहते हैं और उसी में स्वयं को सुखी और संतुष्ट महसूस करते हैं। प्रभु की प्रसन्नता ‘तेन त्यकेन भुंजिया’ के सिद्धांतम को आत्म सात करने पर ही प्राप्त होगी।