संतोष के साथ सादगी जुड़ी हुई है, जिसके जीवन में आडम्बर है वह जीवन में कभी संतोष का अनुभव कर ही नहीं सकता। इसके हृदय में ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट बेईमानी का दूषित चक्र चलता रहता है। अपने ही बुने जाल में जकड़े रहने के कारण सुख उसके लिए मृग मिरीचका के समान हैँ मन की अतृप्त दौड, स्पर्धा, अनिश्चितता अनिर्णय उसकी अकाल मृत्यु के कारण बन जाते हैं, क्योंकि ऐसा व्यक्ति दीर्घायु कभी नहीं हो सकता। संतोष अर्थात अपरिग्रह का अर्थ सब कुछ त्याग देना बिल्कुल नहीं, बल्कि अपनी आवश्यकताओं का अल्पीकरण है। सब कुछ त्यागना तो किसी के लिए भी सम्भ्ज्ञव नहीं। जो संसार से विरक्त हो गये हैं भोजन तो उन्हें भी चाहिए। संतोष तो मन की अवस्था है जो मिल गया बहुत अच्छा न मिला वह भी अच्छा। दोनों अवस्थाओं में जो स्वयं को सम रख सके वही संतोष है। सदियों से मानव विकासोन्मुख है, परन्तु जितना भौतिक विकास हो रहा है उस अनुपात से मानव मन का विकास नहीं हो रहा है। बुद्धि आगे-आगे भाग रही है, जबकि मन पिछड़ रहा है अर्थात मन पर बुद्धि हावी है फलस्वरूप मनुष्य के मन में तृष्णा, कुंठा, निराशा, चिंता, हताशा, अनास्था और पराजय बोध निरन्तर बढ़ रहा है।