हमारे भीतर भी देवत्व का उदय हो सकता है बशर्तें कि हमें दूसरे के कष्टों की अनुभूति होने लगे। अपने अहंकार को तथा जो पशुत्व हमारे भीतर बैठ गया है, उसे त्यागकर श्रेष्ठ मनुष्यत्व को धारण करना सीख जाये तो हम परमात्मा की दया और कृपा के पात्र हो सकते हैं, परन्तु हमारा आचरण तो इसके विपरीत हो रहा है। हम अपने कष्टों से तो दुखी होते ही हैं यह स्वाभाविक है, परन्तु दूसरों को विशेष रूप से अपने विरोधी को दुखी देखकर सुख का अनुभव करते हैं। नीति का वचन है, जो स्वार्थ रहित होकर अपने हितों का परित्याग करके निस्वार्थ और निष्काम भाव से दूसरों की सेवा को ही अपना मुख्य धर्म समझते हैं उत्तम पुरूष कहलाते हैं, जो दूसरों के भले के साथ-साथ अपना भला भी चाहते हैं मध्यम पुरूष है, जो अपनी स्वार्थ सिद्धि में दूसरों का अकल्याण करने में संकोच नहीं करते ऐसे विचार शून्य व्यक्ति दैत्य तुल्य है, किन्तु जो निरर्थक, निष्प्रयोजन दूसरों के अहित चिंतन में ही लगे रहते हैं ऐसी ऐसे नर पशु किस श्रेणी में आते हैं प्रभु ही जानते हैं। यह लेखनी तो ऐसे नर पुरूषों की संज्ञा निर्धारित करने में असमर्थ है।