कल बसंत पंचमी है अर्थात बसंत ऋतु की आहट अथवा बसंत ऋतु के पदार्पण का आभास। जिस प्रकार ब्रह्मांड में अथवा कहे बाहरी संसार में बसंत पतझड़, ग्रीष्म आदि ऋतुओं का आगमन होता रहता है, वैसे ही हमारे भीतर भी इन ऋतुओं का अवतरण होता रहता है। हमारे भीतर प्रकट होने वाली ये ऋतुएं वस्तुत: हमारी मानसिक दशाएं होती है। वास्तव में बसंत और पतझड़ क्रमश: सुख-दुख तथा खुशी उदासी रूपी हमारी मानसिक दशाओं के ही प्रतीक हैं। यही कारण है मनुष्य को ये दोनों ही ऋतुएं अन्य ऋतुओं की तुलना में अधिक आकर्षित करती है। यह बहुत स्वाभाविक भी है। जब हम खुश होते हैं, तो हमारे भीतर खुशियों वाले रसायन प्रवाहित होते हैं। ऐसे में हमारे भीतर दुख की भावना पैदा करने वाले रसायन प्राय: दमित अवस्था में चले जाते हैं। दूसरी ओर जब हम दुखित होते हैं तो हमारे भीतर दुख एवं उदासी वाला सक्रिय एवं प्रभावी होता है, जिसके फलस्वरूप हम दुखी एवं उदास महसूस करने लगते हैं। ओशो (रजनीश) कहते हैं जैसे बाहर में बसंत है वैसे ही भीतर भी बसंत घटता है और जैसे बाहर पतझड़ है, वैसे ही भीतर भी पतझड़ आता है। अंतर मात्र इतना है कि बाहर के बसंत और पतझड़ नियति से चलते हैं वही भीतर के बसंत और पतझड़ आपकी चिंतन शैली के परिणाम हैं।