पुरूष दो प्रकार के हैं प्रथम परोपकार के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार रहने वाले, जीवन को दांव पर लगाकर अन्य को सुख पहुंचाने वाले परोपकारी पुरूष श्रेष्ठ हैं। दूसरी प्रकार के पुरूष वे हैं जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अन्य को हानि पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करते।
दूसरे प्रकार के पुरूष को अपने तुच्छ लाभ के लिए अन्य की बड़ी से बड़ी हानि करने से किसी प्रकार का मानसिक कष्ट नहीं होता। ऐसे पुरूष निकृष्ट कोटि में आते हैं। अगले जन्मों में वे मानव योनि से वंचित रहते हैं।
परोपकार से प्रयोजन है अन्य को कुछ देना और बदले में कुछ नहीं लेना। देने में जो आनन्द है वह लेने में नहीं होता। दिये हुए को मन से त्यागकर आप किसी भी क्षण मुक्त हो सकते हैं, परन्तु लिया हुआ चुकाये बिना आपको मुक्ति नहीं मिल सकती। परमात्मा इसीलिए सर्वोच्च है कि वह देना ही जानता है लेना नहीं।
किसी का काम बिगाड़े बिना यदि आपका काम संवर सकता है तो कोई दोष अथवा अपराध नहीं, परन्तु दूसरे को हानि पहुंचाकर अपनी स्वार्थ सिद्धि करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं वह तो पाप है। धरती को संवारों, हल चलाओ, बीज बोओ, सिंचाई, गुड़ाई, निराई करो अच्छी बात है, बिना किसी को हानि पहुंचाये आप पुरूषार्थ कर रहे हैं, परन्तु दूसरे का पानी रोककर आप अपने खेत की सिंचाई करते हैं वह पाप है।