हमारे विचारों का उद्गम हमारा मन है। मन में असंख्य विचार आते हैं, अच्छे विचार भी और बुरे विचार भी। इन्हीं विभिन्न प्रकार के विचारों के प्रभाव से हमारा स्वभाव अर्थात धर्म निर्मित होता है। विचार अच्छे होंगे तो स्वभाव या धर्म अच्छा होगा। यदि विचारों में मलिनता है तो हमारा धर्म कभी अच्छा हो ही नहीं सकता।
मलिन विचार तो अपना कल्याण करने में भी समर्थ नहीं है औरो का कल्याण क्या करेंगे। सच्चा धर्म वस्तुत: चित्त की शुद्धता ही है। धर्म जीवन जीने की शैली है और मनोविकारों से मुक्ति की कला है। मनोविकार ही है, जो दुष्कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। मनोविकारों के बिना हम कोई भी शारीरिक अथवा वाचिक दुष्कर्म कर ही नहीं सकते। विकारों से मुक्त होकर चित्त को निर्मल करने का प्रयास जहां से आरम्भ होता है वही धर्म की भूमिका प्रारम्भ होती है।
मनोविकारों को पुरस्कृत कर उन्हें संस्कारों में परिवर्तित करने का कौशल ही धर्म है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को अनैतिक मार्ग पर न जाने दे, यही धर्म है। धर्म साधन है, साध्य नहीं। साध्य हमारा है आत्मिक विकास और धर्म इसमें सहायक हैं। आत्मिक विकास का अर्थ दूसरों के प्रति घृणा और असहिष्णुता नहीं हो सकता। धर्म के नाम पर जो ऐसा कर रहे हैं वे धार्मिक हो ही नहीं सकते।