शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहता, मृत्यु सदा निकट रहती है। इस कारण धर्म का संग्रह करना चाहिए। जब तक शरीर निरोग है, मृत्यु जब तक दूर है, तब तक आत्म कल्याण के कार्य कर डालना उचित है। प्राणान्त हो जाने पर फिर क्या हो सकेगा। काल सब प्राणियों को उत्पन्न करता है।
काल ही सब प्रजाओं का नाश करता है। सबके सो जाने पर काल ही जागता रहता है। काल को कोई टाल नहीं सकता। प्राणान्त हो जाने पर केवल धर्म ही साथ जाता है, मित्र केवल धर्म ही है। धर्म रहित जीवन मृतक के समान है, निश्चय ही धर्मशील व्यक्ति मरा हुआ भी चिरंजीवी हैं, जिसके पास धर्म है कीर्ति उसी की होती है।
धर्म विहीन अपकीर्ति को प्राप्त होते हैं। जिसकी अपकीर्ति है वह तो जीवित भी मृत समान है।