प्रेम को लेकर बहुत सारी बातें कही गई हैं। उनकी व्याख्या भी विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से की है। उनकी शब्दावली भिन्न-भिन्न हो सकती है, परन्तु सभी ने जीवन में प्रेम के महत्व को बखूबी रेखांकित किया है। ढाई अक्षर प्रेम का पढे सो पंडित होय कहकर कबीर ने बहुत ही संक्षिप्त में अन्तर्मन के भावों को भी अनंत ऊंचाईयां प्रदान की है, जो प्रेम के सच्चे अर्थों को नहीं समझ पाते वे तो कामुकता को ही प्रेम मान बैठते हैं और उसका प्रदर्शन करते हुए सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। ऐसे में प्रेम का अर्थ गौण हो जाता है। इस प्रकार के अनैतिक एवं पापमय प्रदर्शन को जिसे हम नाम प्रेम का देते हैं कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। वास्तव में वहां प्रेम होता ही नहीं केवल कोरा स्वार्थ होता है। इस प्रकार दुबुद्धि व्यक्ति प्रेम की पवित्रता को कलंकित कर देते हैं तथा प्रेमास्पद के हृदय को पीडा देते हैं।