कुसंग कुष्ट रोग है, जिसकी औषधि सत्संग है। जैसे कुष्ट शरीर को क्षीण करता रहता है वैसे ही कुसंग सत्संग, सद्धर्म, सद्विचार एवं सदाचार को क्षीण करता रहता है। सत्संग की औषध का पान करने वाला कुसंग के प्रभावों से मुक्त रहकर अपने जीवन को संवार लेता है। विवेकी पुरूष इस महारोग से अपने को बचाये रखते हैं। जिस प्रकार वस्त्र स्वच्छ होने पर भी हर स्थान पर पहन कर बैठने, उठने, चलने फिरने से मिट्टी आदि लगाने से मैला हो जाता है, उसी प्रकार स्वच्छ, निर्मल बुद्धि भी विषयी प्राणियों की कुसंगति में पड़कर विषय वासना रूपी मैल से मलिन हो जाती है। जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्र मैल से ढक जाने पर कुरूप और दुर्गंधपूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल आनन्द की अनुभूति करने वाली बुद्धि भी अज्ञान से आवृत होने पर चिंता शोक से ग्रस्त हो दुख प्रदायनी हो जाती है। इसलिए सदैव कुसंग से बचकर सुसंगति में रहने का प्रयास करना चाहिए। स्वर्ग नरक दोनों तुम्हारे भीतर है। आप बुरे लोगों से संगति करते बुरी आदतें सीखेंगे, दूसरों से बैर भाव रखेंगे, उनका बुरा चाहेंगे, उनकी हानि की सोचेंगे तो हृदय में सदैव बैचेनी अशान्ति और पीड़ा रहेगी क्या यह नरक नहीं है। आप सत्संग करते हैं, अच्छे लोगों के साथ उठते-बैठते हैं, श्रद्धा से किसी श्रेष्ठ गुरू के पास जाते हैं। वहां से अच्छी प्रेरणा लेकर सबसे प्यार और सम्मान का व्यवहार करते हैं। करूणा से किसी रोते के आंसू पोछते है, सेवा भाव रखते हैं, आपको भी सम्मान मिलता है, आप संतुष्ट रहते हैं, यही स्वर्ग है।