सुगन्धित पदार्थों से यज्ञ करने में हमें एक शिक्षा यह भी मिलती है कि हम अपनी आतंरिक सद्भावनाओं और सत्प्रवतियों को प्रसुप्त स्थिति में न रहने दें उन्हें दीप्तिमान और तेजस्वी बनायें। द्रव्य पदार्थों (हवन सामग्री) की विपुल मात्रा भंडारों में संग्रहित रहती है। इसका कुछ पुण्य नहीं। संग्रहकर्ता को इससे थोडा अधिक लाभ भर हो सकता है।
जन साधारण को लाभ तो तभी मिलता है, जब वह वितरित होकर यज्ञ में आहुत हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य के पास ऐसी विशेषताएं होती हैं, जिन्हें वह चाहे तो वितरित कर सकता है और असंख्यों को ऊंचा उठाने, आगे बढाने एवं आनन्दित करने में सहायता कर सकता है।
जहां ऐसी भावनाएं उभर रही हो समझना चाहिए कि जीवन को यज्ञ मय बनाया जा रहा हैँ चंदन, कपूर, गौधृत आदि की सुगन्ध इनके जलने पर ही व्यापक बनती हैं अन्यथा उनकी सुवास उनके भंडार तक ही सीमित रहेगी। सद्गुणों को चाहे तो मनुष्य अपने निज तक सीमित रख सकता है, उसका उससे केवल उसे लाभ है, परन्तु जब कोई अपनी विभुतियों से दूसरों को लाभान्वित करने में परमार्थ प्रवृति अपनाता है तो भले ही निजी लाभ सीमित होता दिखाई पडे, किन्तु असंख्यों को लाभ मिलने की जो मंगलमयी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं उससे मिलने वाले पुण्य की कोई तुलना किसी अन्य उपकार के कार्य से नहीं की जा सकती।