अर्थववेद का ऋषि कहता है ‘पर्णाल्लघीयसी भव’ अर्थात हे मानव तू पत्ते से भी हल्का बन अर्थात नम्र बन, जो नम्र बनता है, उसके पास सद्गुण और सम्पत्ति स्वयं खिंची चली आती है।
विष्णु पुराण में कहा गया है ‘हे मनुष्य तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर लुढकता हुआ जल अपने आप ही पात्र में आ जाता है, वैसे ही सत्पात्र अर्थात विनम्र मनुष्य के पास सभी सम्पत्तियां स्वयं आ जाती है।
कुपात्र व्यक्ति तनिक सी विद्या पाकर अभिमान में आ जाते हैं। विद्या और ज्ञान चाहे, जितने प्राप्त हो जाये, ऐठों और अकड़ो मत अपितु शिष्ट और विनम्र बनो। विद्या से अभिमान नहीं नम्रता आनी चाहिए।
नीति का वचन है ‘विद्या ददाति विनयं, विनयमं ददाति पात्रताम पात्रत्वाद् धनमाटिनोति धनात धर्मस्तत: सुखम’ अर्थात विद्या से नम्रता आती है, विनम्रता से पात्रता (योग्यता) प्राप्त होती है। योग्यता से धन मिलता है।
धन से धर्म कार्य और सुख की प्राप्ति होती है। यदि आप भी सुख-शान्ति और आनन्द चाहते हैं तो नम्र बनो, शिष्ट बनो। विनम्र और शिष्ट व्यक्ति ही सम्मान के अधिकारी होते हैं।