Friday, April 11, 2025

कश्मीरी पंडित महिलाओं से नहीं छीन सकते ‘विस्थापित’ का दर्जा

जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट ने घाटी में 1989 से शुरू हुए आतंकवादी हमलों से बचने के लिए पलायन करने वाली हिंदू महिलाओं के मामले में महत्वपूर्ण फैसला दिया है। हाई कोर्ट ने कहा कि सुरक्षा कारणों से घाटी से पलायन करने वाली कोई कश्मीरी पंडित महिला अगर किसी गैर-विस्थापित से शादी करती है, तो भी उसका विस्थापित दर्जा खत्म नहीं होगा।

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1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के खिलाफ  हुए नरसंहार एवं हमलों के कारण हजारों की संख्या में कश्मीरी हिंदू घाटी छोड़कर भाग गए थे। इसके बाद समय-समय पर सरकार ने उनके लिए कई तरह के कार्यक्रम शुरू किए। साल 2009 में जम्मू-कश्मीर ने घाटी छोडऩे वाले ‘प्रवासियों’ के लिए विशेष नौकरियों की घोषणा की थी, ताकि वे कश्मीर में वापस लौट सकें।

 

इस मामले में दो कश्मीरी पंडित महिलाओं ने इस योजना के तहत नौकरी के लिए आवेदन किया था। यह आवेदन राज्य के आपदा प्रबंधन, राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण विभाग में कानूनी सहायकों के पद के लिए था। इन दोनों महिलाओं को चुन लिया गया, लेकिन अंतिम चयन सूची से उनका नाम हटा दिया गया। इसके लिए तर्क दिया गया कि दोनों महिलाओं ने गैर-प्रवासियों से शादी की थी।

 

राज्य सरकार ने तर्क दिया कि महिलाओं ने इस तथ्य का खुलासा नहीं किया था कि शादी के कारण उनकी विस्थापित वाली स्थिति बदल गई है। हालाँकि, महिलाओं ने कहा कि विस्थापित के रूप में उनकी स्थिति बरकरार रहनी चाहिए। दोनों महिलाओं ने सरकार के निर्णय को केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (सीएटी) में चुनौती दी। सीएटी ने राज्य सरकार को दोनों महिलाओं को नियुक्त करने के लिए कहा। इसके बाद जम्मू-कश्मीर सरकार ने सीएटीके आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील दायर की।

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सीएटी के फैसले को बरकरार रखते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि शादी करने से महिलाओं के विस्थापित दर्जे में कोई बदलाव नहीं हुआ है। विवाह की स्थिति का खुलासा नहीं करने का तर्क कोई महत्व नहीं रखता है, क्योंकि नौकरी के विज्ञापन नोटिस में इस आधार पर उम्मीदवारी रद्द करने का प्रावधान नहीं था।

 

गैर-विस्थापित से शादी के बाद विस्थापित का दर्जा खत्म होने या बरकरार रहने को लेकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति मोहम्मद यूसुफ वानी की खंडपीठ ने सुनवाई की। खंडपीठ ने 11 नवंबर को दिए अपने फैसले में कहा, ‘यहाँ प्रतिवादी महिलाएँ हैं और उन्हें बिना किसी गलती के कश्मीर घाटी में अपना मूल निवास स्थान छोडऩा पड़ा था।’ कोर्ट ने कहा कि उनसे (कश्मीरी महिलाओं से) यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे केवल विस्थापित के रूप में कश्मीर घाटी में नौकरी पाने के लिए अविवाहित रहेंगी। विस्थापन के कारण हर कश्मीरी महिला को कश्मीरी जीवनसाथी नहीं मिल पाया होगा। ऐसी स्थिति में यह मान लेना कि महिला विस्थापित के रूप में अपना दर्जा खो देगी, यह घोर भेदभावपूर्ण और न्याय की अवधारणा के विरुद्ध होगा।

कोर्ट ने कहा कि यह भेदभाव और बढ़ जाता है क्योंकि एक पुरुष अगर गैर-विस्थापित से विवाह करता है तो वह विस्थापित बना रहता है। खंडपीठ ने कहा, ऐसी स्थिति केवल मानव जाति में व्याप्त पितृसत्ता के कारण उत्पन्न हुई है। राज्य/केंद्र शासित प्रदेश के तहत रोजगार से संबंधित मामलों में ऐसा भेदभाव बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अदालत ने दोनों महिलाओं को चार हफ्ते में नियुक्त करने के लिए कहा।
-रामस्वरूप रावतसरे

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